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जीवन और अहिंसा। श्री आत्मारामजी महाराज के सुशिष्य श्री ज्ञान मुनिजी-आध्यात्मिक
जगत में भगवती अहिंसा को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है । अहिंसा आध्यात्मिक साधना की प्राथमिक भूमिका है, उसकी आधारशिला है । मानव-जीवन का उज्वल प्रकाश भी अहिंसा की अमर भावना में ही निवास कर रहा है । अहिंसा और सत्य के अग्रदूत भगवान् महावीरनेः
_*" धम्मो मंगलमुकिटं अहिंसा संजमो तवो" यह कह कर अहिंसा को धर्म और सर्वश्रेष्ठ मंगल स्वीकार किया है और साथ में
+" देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धम्मे सया मणो" यह प्रतिपादन कर अहिंसा की उच्चता, महत्ता, सफलता और लोकप्रियता को भी उन्होंने सहर्ष माना है । इसके अतिरिक्तः
"मा हिंस्यात सर्वभूतानि, (और) अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः"
आदि महावाक्य भी अहिंसा के ही अपूर्व गुणगौरव को अभिव्यक्त कर रहे हैं। अहिंसा की महिमा महान् है । किसीने उसे धर्म के रूप में देखा है, कोई उसे मंगल के नाम से पुकारता है और किसीने अहिंसा को शान्ति का महापथ एवं आध्यात्मिकता का एक उज्वल प्रतीक स्वीकार किया है।
___ अहिंसा का प्रतिपक्ष हिंसा है । अहिंसा के स्वरूप का अवबोध प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम हिंसा के स्वरूप को जान लेना उचित प्रतीत होता है ।
स्वनामधन्य आचार्य उमास्वातिने स्वनिर्मित श्रीतत्त्वार्थ सूत्र में प्रमत्तयोग के साथ किये गये प्राणवध को हिंसा कहा है:
" प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।" आचार्यप्रवर उमास्वातिने हिंसा की व्याख्या दो अंशों द्वारा पूर्ण की है । उनमें प्रमत्तयोग प्रथम है और प्राणवध यह दूसरा अंश है। राग और द्वेष से पूर्ण व्यापार या जीवन
ॐ अहिंसा, संयम, तप यह त्रिविध धर्म है और उत्कृष्ट मंगल है। + जिस हृदय में धर्म निवास करता है, देवता भी उसको नमस्कार करते हैं।
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