________________
श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
अहिंसा धर्म के जयनादों से, उसे जीवन में न लाकर, केवल उसकी दुहाई देते रहने से अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है। अहिंसा को जीवनोपयोगी न बना कर मात्र उसकी दुहाई देते रहने से तो अहिंसा बदनाम होती है और जनमानस में उसके लिये अश्रद्धा एवं अरुचि पैदा होती है । इस सत्य की पुष्टि गांधीजी के एक भाषण द्वारा हो जाती है। जिस में उन्होंने कहा था कि जब मैं अहमदाबाद में था तब वहां के कांकरिया तालाब का पानी सूख जाने से जैनी लोग मछलियों को पानी पिलाने जाते थे और कई बार मैं देखता हूँ दयाधर्मी चींटियों को आटा डालने जाते हैं। दूसरी तरफ उनका जीवन देखें तो मछलियों को पानी पिलानेवाले अपने पड़ौसी की तरफ वह भूखा है या बीमार है ! कुछ भी ध्यान नहीं देते हैं । मछलियों को पानी पिलानेवाले सट्टा और व्याज आदि के धन्धों द्वारा मानव का खून पी जाने में तनिक भी हिचकिचाते नही हैं। चींटियों को आटा डालनेवाले दूसरी ओर विधवा की धरोहर को अजगर की भांति निगल जाते हैं । यह सब देख कर मुझे आश्चर्य होता है कि यह जैनियों की अहिंसा कैसी है ?
३३०
जैनधर्म की अहिंसा महान् है । देश - जाति और पारिवारिक जीवन के निर्माण के लिये वह एक वरदान के रूप में हमारे सामने आती है । तथापि गांधी जैसे युगपुरुष के मानस में जो आन्त धारणा बन गई उसका उत्तरदायित्व उन लोगों पर है जो अहिंसा धर्म की 'जय हो' के नारे तो लगाते हैं; किन्तु निज जीवन का एक कण भी उस से छूने नही देते । वस्तुतः जैन अहिंसा की लोकप्रियता और मार्मिकता से अनभिज्ञ और यथार्थ रूपसे उसे जीवन में न लानेवाले लोगों के दिखावटी कारनामों से ही अहिंसा की यह दुर्दशा हुई है और हो रही है।
अहमदाबाद के लोगों की अहिंसा के सम्बन्ध में महात्मा गांधीने जो जिक्र किया है उसके सम्बन्ध में मुझे अधिक कुछ नहीं कहना है। जैन दर्शन का जहांतक मैने अध्ययन किया है उसके आधार पर संक्षेप में मैं तो बस इतना ही कह सकता हूँ कि अहमदाबाद के लोगों की अहिंसा जैनदर्शन की अहिंसा नहीं है। जैन दर्शन में ऐसी पंगु और अन्धी अहिंसा का कोई स्थान नहीं है । जैन दर्शन चींटियों और मछलियों की रक्षा की प्रेरणा अवश्य करता है, किन्तु वह चींटियों और मछलियों के साथ - साथ मानव-जीवन की रक्षा को अपेक्षाकृत अधिक महत्व प्रदान करता है। मानव-जीवन को जैन दर्शनने सर्वोपरि स्थान दिया है । एकेन्द्रिय जीवन की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय जीवन की रक्षा सर्वप्रथम है । यही जैनत्व है - यही जैन संस्कृति का अमर स्वर है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी विधवाओं की धरोहर अजगर की तरह निगल जाने वाले लोगों को भले ही जैनी कहें, किन्तु जैन दर्शन उन्हें जैन नहीं कहता ।