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संस्कृति
जीवन और अहिंसा । ऐसे लोगों का जीवन जैनत्व से कोसों दूर है । ऐसे लोगों को जैनी नहीं कहा जा सकता। मैं तो कहता हूं-ऐसे लोग अपने को जैनी कहकर जनस्व को लाञ्छित करते हैं । जैन दर्शन को बदनाम करते हैं। ऐसे लोगों को चाहिये कि वे अपने को जैन न कहें-अपने को जैन कहकर लोगों की आँखों में धूल न झोंके-उन्हें चाहिये कि वे अपने ऊपर जैनत्व का लेबल न रखें । विष की शीशी पर अमृत का लेबल नहीं रखना चाहिये ।
आज अहिंसा के सप्ताह अवश्य मना लिये जाते हैं, किन्तु हृदयों में वैर-विरोध की आग निरन्तर जलती रहती है । कहिये-ऐसे कोरे अहिंसा सप्ताहों से मानव-जगत को कभी सुख-शान्ति का लाभ प्राप्त हो सकता है ! कदापि नही। मानव-जगत में जब भी सुख-शान्ति की स्थापना होती है तो वह एक मात्र अहिंसा के आराधन एवं आचरण से ही होती है। अहिंसा ही दुःखों की नाशिका है और अहिंसा ही शान्ति की संस्थापिका है। वस्तुतः अहिंसा का नेतृत्व ही मानव-जगत को सुखों के महामन्दिर तक ले जा सकता है । अहिंसा ही दुःखों की नाशिका है । अहिंसा ही शान्ति की संस्थापिका है।
जीवन और अहिंसा इन दोनों को मिल कर रहना चाहिये । इन दोनों का सामंजस्य ही मानव-जीवन की सफलता का अपूर्व महापथ है। यदि अहिंसा पूर्व दिशा की ओर जाने को कहती है; किन्तु मानव-जीवन पश्चिम दिशा की ओर बढ़ रहा है-तब बात नहीं बन सकेगी। ऐसी दशा में दुःखों का नाश नहीं होगा। जो जीवन अहिंसा को साथ ले कर बढ़ता है, एक पग भी अहिंसा को पीछे नहीं जाने देता वही जीवन अपने लक्ष्य को पा सकता है।
और ऐसा ही जीवन ऐहलौकिक और पारलौकिक दुःखों का सर्वनाश कर के मुक्ति के अखण्ड सुख-साम्राज्य को उपलब्ध करने में सफल हो पाता है ।