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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और अथवा स्थावर दोनों प्रकार के प्राणियों के साथ हो सकता है। क्योंकि ' हिंसास्वभावो यज्ञ. स्येति ' । इस पर ऋषिने उसे शाप दे दिया और वह आकाश से गिर कर तुरन्त अधोगति को प्राप्त हुआ। इससे लोगों की श्रद्धा हिंसा से उठ गई ।
यही कथा कुछ हेरफेर के साथ जैन पौराणिक और आख्यानिक साहित्य में यों बतलाई गई है-बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत भगवान् के काल में 'अजैर्यष्टव्यम् ' के प्राचीन अर्थ ' जौ से देवयज्ञ करना चाहिये' को बदल कर जब पर्वत ऋषिने यह अर्थ करना आरम्भ कर दिया की बकरों को मार कर देवयज्ञ करना चाहिये तो इसके विरुद्ध नारदने घोर विसंवाद खड़ा कर दिया। इस विसंवाद का निर्णय कराने के लिये चेदिनरेश वसु को पंच नियुक्त किया गया । उस जमाने में राजा वसु अपनी सत्यता और न्यायशीलता के कारण बहुत ही लोकप्रिय था । उसका सिंहासन स्फटिक मणियों से खचित था। जब वह उस सिंहासन पर बैठता तो ऐसा मालूम होता कि वह बिना सहारे आकाशमें ही ठहरा हुआ है। राजा वसुने यह जानते हुए भी कि पर्वत का पक्ष झूठा है, केवल इस कारण कि वह उसके गुरु का पुत्र है, पर्वत का समर्थन कर दिया । इस पर राजा वसु तुरन्त मर कर अधोगति को प्राप्त हुआ । जनता में हाहाकार मच गया और अहिंसा की पुनः स्थापना हो गई।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की अनुश्रुतियों की संगति बैठाने से प्रतीत होता है कि महाभारत व मत्स्यपुराण में जिस इन्द्र और ऋषि का कथन है वे क्रमशः चेदिनरेश वसु और नारदऋषि का है। उक्त आख्यानों के इन्द्र और ऋषि का ठीक समय निर्णय करना तो कठिन है, लेकिन यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकता है कि वे अवश्य ही महा. भारत युद्ध से काफी पहले हुर होंगे ऐसा सहज माना जा सकता हैं। क्यों कि ऋग्वेद १. १३२, ६. और ३. ५३, १ में इन्द्र और पर्वत दोनों को इकट्ठे ही देवतातुल्य हव्य.
1. (अ) ईसा की आठवीं सदी के आचार्य जिनसेनकृत हरिवंशपुराग सर्ग १७, श्लोक ३८ से १६४. ( आ ) ईसा की सातवीं सदी के आचार्य रविषेगकृत पद्मचरित पर्व ११ ( इ ) ईसा की नवीं सदी के आचार्य गुगभद्रकृत उत्तरपुराण पर्व ६५, श्लोक ५८ से ३६३ ( ई ) ईसा की बारहवीं सदी के आचार्य हेमचन्द्रकृत त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व ५, सर्ग २७ (उ) ईसा की प्रथम सदी के आचार्य विमलसूरिकृत पउमचरिउ ११, ७५-८१ (ऊ) ईसा की प्रथम सदी के आचार्य कुन्दकुन्दकृत भावप्राभृत ४५ (क) ईसा की दसवीं सदी के आचार्य सोमदेवकृत यशस्तिलकचम्पू आश्वास ७, पृ. ३५३ (ऋ) ईसा की दसवीं सदी के आचार्य हरिषेगकृत हरिषेणकथाकोष ७६ वी कथा. २. युवं तमिन्द्रापर्वता पुरोयुधा यो नः पृतन्यादप तं तमिद्धतं वज्रेण तं तमिद्धतम् । ३. इन्द्रापर्वता बृहता रथेन वामीरिष आहतं सुवीराः ।