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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और प्रशंसा करते हैं । इसी से उन्हें बार २ शरीर धारण करना पड़ता है। जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कर लेता है और जो कर्म को भली भाँति समझ लेता है वह जैसे नदी के किनारे वाला मनुष्य कूओं का आदर नहीं करता वैसे ही ज्ञानीजन कर्म की प्रशंसा नहीं करते।
त्रेता शब्द के प्रयोग से भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस युग में तीन विद्याएं (ऋक्, यजुः, साम ) तथा तीन अग्नियां ( आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिण ) विशेष रूप से प्रचलित हो गई थीं। देखिये मनु. अ. २. श्लोक २३१ । इससे पूर्व का युग सतयुग अथवा कृतयुग इसी लिए कहलाया है कि उसमें सत्य अर्थात् मोक्षमार्ग की और कृत अर्थात् कर्मफलवाद की प्रधानता थी। प्राचीन मोक्षमार्ग का ही दूसरा नाम अध्वर यज्ञ है:
वैदिक आर्यों के आगमन से पूर्व भारत के यतिजन जिस मोक्षमार्ग का अनुसरण करके आत्मसाधना करते थे उसका रूप और उद्देश त्रेतायुग में आरम्भ होनेवाले आधिदैविक यज्ञों से विलक्षण प्रकार का था । उसमें बाह्य अनुष्ठान की जगह आत्मसाधना, क्रियाकाण्ड की जगह कर्मनिरोध, पशुबलि की जगह पाशविक वासनाओं की बलि, अग्नि की जगह परीषह सहन, वेदि की जगह आत्मसमाधि मुख्य तत्त्व थे । इसी लिये तत्कालीन आधिदैविक यज्ञों से पृथक् करने के लिए इस यज्ञ का नाम वैदिक ऋषियोंने अध्वर अर्थात् अहिंसात्मक यज्ञ प्रसिद्ध किया । इसी आशय को लेकर निरुक्तकार यास्क मुनिने अध्वर शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है-अध्वर इति यज्ञनाम, ध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः। (निरुक्त १. ८)
इस अध्वर यज्ञ का विशेष सम्बन्ध आदि प्रजापति के उस तप, त्याग, अहिंसामय मोक्षमार्ग से है जिस पर चल कर इस कल्प के आदि में उसने सब से पहले आत्मपूर्णता की सिद्धि की थी। इसी भाव को लेकर ' अध्वर' शब्द वैदिक श्रुतियों में अग्नि ( अग्रणि), ज्येष्ठ, ब्रह्मा, ऋषभ, अनडवान्न, पशुपति, भूतपति, गोपति, गोर, गॉड (GOD ) असुर, असुरीश, असुरमहत, ईष, महेश, महेशी आदि अनेक नामों से विख्यात प्रजापति की अहिंसामय साधना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भारत की अहिंसामयी संस्कृतिने सदा हिंसा पर विजय पाई:
प्राचीन पौराणिक आख्यानों से यह भी स्पष्ट है कि जब कभी विदेशी आगन्तुकों की सभ्यता व अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों के कारण भारत के सप्तसिन्धु देश, कुरुक्षेत्र, शौरसेन, १ " अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि"
-ऋग १. १. ४. (आ) अग्निर्यज्ञस्याध्वरस्य चेतति
-अग• १. १२८. ४.