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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और शतपथ ब्राह्मण १४. १. १-५ में कहा गया है कि देवोंने सब से पहले कुरुक्षेत्र में ही यज्ञ किया । महाभारत शल्यपर्व अध्याय ४१. २९-३० में कहा गया है कि इन्द्र के गुरु बृहस्पतिने कुरुक्षेत्र में ही देवताओं के अभ्युदय और दस्युओं के नाश के लिये पशुयज्ञ किये थे। - इन तमाम विशेषताओं के कारण आर्यजाति के भारतीय इतिहास में जो महत्ता कुरुक्षेत्र को दी गई है वह भारत के अन्य पुराने प्रसिद्ध तीर्थस्थानों में से किसी को भी नहीं दी गई । इसी महत्त्व के कारण यह स्थान वैदिक साहित्य में ' देवानां देवयजनम् ' प्रजापतिवेदी, ब्रह्मक्षेत्र, धर्मक्षेत्रे, ब्रमावर्त' आदि गौरवपूर्ण नामों से पुकारा गया है। सरस्वती नदी के प्रदेश की इस सांस्कृतिक महत्ता के कारण ही वैदिक विद्या का अपर नाम 'सरस्वती' प्रसिद्ध हुआ है । वैदिक परिभाषा में ब्रह्म का वास्तविक अर्थ मन्त्र है और मन्त्र को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है इस लिए इस देश को जहां मन्त्रों का संहितारूप में संकलन हुआ, ब्रह्मक्षेत्र व ब्रह्मावर्त कहा जाना सार्थक ही है।
क्योंकि आर्यजन अपने को देव और अपने निवासदेशों को स्वर्ग नाम से पुकारते थे अतः उस जमाने में सप्तसिन्धुदेश का यह अन्तिम छोर स्वर्ग का अन्तिम भाग कहलाता था।
इस कुरुक्षेत्र में आबाद हो कर देवजन काफी समय तक अपनी सभ्यता का विकास करते रहे। यहां वे बहुत से आदिवासी नागजाति के विद्वानों व राजधरानों के व्यक्तियों को भी अपनी सभ्यता के अनुयायी बनाने में सफल हुए। इनमें से कईने तो मन्त्रों की रचना में काव्यकुशलता के कारण ब्राह्मणों में इतनी ख्याति प्राप्त की कि विजातीय होते हुए भी उन्हें ऋषिश्रेणि में संमिलित किया गया और उनकी रचनाओं को वैदिक संहिताओं में स्थान दिया गया । ऋग्वेद के १० वे मण्डल के ९४ वें सूक्त के रचयिता कद्रू के पुत्र नागवंशी अर्बुद थे । ७६ वे सूक्त के रचयिता नागजातीय इरावत् के पुत्र जरत्कर्ण थे। १८६ वें सूक्त की रचयित्री सर्वराज्ञी थी। यह सब कुछ होते हुए भी अपने जातीय गर्व और अपने सफेद सुन्दर वर्ण व रक्त की शुद्धि को बनाये रखने के ख्याल से वे न तो यहां की आम जनता में अपनी संस्कृति को फैला सके और न रोटी-बेटी के सम्बन्ध कायम करके उन्हें अपने
१. देवा हवै सत्रं निषेदुः ।...तेषां कुरुक्षेत्र देवयजनमास । तस्मादाहुः कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनमिति । शतपथ १४. १. १-५।।
२. ताण्ड्यब्राह्मग २५. १३. ३ । ३. ऐतरेयब्राह्मण ७. १९ । ४. भगवद्गीता १.१। ५. मनुस्मृति २.१७, १८ । महाभारत भीष्मपर्व अ. ९ । इ.इमा गावः सरमे या ऐच्छः परिदेवो अन्तान् सुभगे पतन्ती। ऋ. १०, १०८. ५