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संस्कृति
भारत की अहिंसा संस्कृति । मूढ जन वेद, यज्ञ, दान, तपस्या से भी मुझे कभी नहीं प्राप्त कर सकते । अत एव तुम अन्तःकरण को एकाग्र कर के ज्ञाननिष्ठ हो कर कर्म करो। सुख और दुःख में समानभाव रखकर सदा प्रसन्न रहो ॥
___इस कथा का ऐतिहासिक तथ्य यही है कि सप्तसिन्धुदेश के मूलनिवासियों की भांति हिमाचल प्रदेश के भूत, यक्ष, गन्धर्व लोग भी वैदिक आर्यों के देवतावाद और उनके हिंसामय यज्ञों के विरोधी थे। जब वैदिक आर्यजन की एक शाखाने दक्ष के नेतृत्व में गंगाद्वार के रास्ते इलावृत अर्थात् मध्यहिमाचल प्रदेश में प्रवेश किया और इन यक्ष, गन्धर्षों के माननीय धर्मतीथों-बदरीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार आदि स्थानों में अपनी परम्परा के अनुसार हिंसामय यज्ञों का अनुष्ठान किया तो वहां के भूत, यक्ष, गन्धर्व लोग उनके विरोध पर उतारू हो गये और इस विरोध के कारण वे निरन्तर आर्यजनों के यज्ञयागों को नष्ट करने लगे। यह सांस्कृतिक संघर्ष उस समय जाकर शान्त हुआ जब वैदिक आर्योंने इन के आराध्य देव महायोगी शिव को और इन के तप, त्याग, ध्यान और अहिंसामय अध्यात्ममार्ग को अपना लिया। सप्तसिन्धुदेश और कुरुक्षेत्र के आर्यजन
___ इसी तरह आर्यगण की दूसरी शाखा जो उत्तरपश्चिम के द्वारों से सप्तसिन्धुदेश में दाखिल हुई वह धीरे २ सप्तसिन्धुदेश में से होती हुई इसके अन्तिम छोर कुरुक्षेत्र में जा पहुंची । यह कुरुक्षेत्र उस समय सरस्वती और दृषद्वती नामवाली दो चाल नदियों के संगम पर स्थित था । यहां का जलवायु बहुत सुन्दर था । पशुपालन के लिये हरा २ घास और जल जगह २ काफी मात्रा में मिलता था । यज्ञ याग करने की भी सब सुविधायें यहां प्राप्त थीं । आर्यगण की भारतीय यात्रा में कुरुक्षेत्र ही वह प्रमुख देश है, जहां उन्हें कौरववंश की संरक्षकता में विशेषतया परीक्षित और जनमेजय के शासनकाल में विघ्नबाधारहित दीर्घकाल तक आराम से रह कर अपनी संस्कृति को विकसित करने, बढ़ाने और संघटित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था, इस लिए स्वभावतः यह देश चिरकालतक आर्यसंस्कृति का महाकेन्द्र बना रहा है । यह श्रेय कुरुक्षेत्र को ही प्राप्त है कि वैदिक आर्यजाति की सुमेर देश से चल कर भारत तक आने की लम्बी यात्रा में जिन राष्ट्रीय घटनाओं से वास्ता पड़ा है उनकी
अनुश्रुतियों और संस्मृतियों, भावनाओं और कल्पनाओं को जो सूक्तों (गीतों ) के रूप में परम्परागत चली आ रही थीं, चार वैदिक संहिताओं के व्यवस्थित रूप में यहां संकलन किया गया । इन सूक्तों और इन में वर्णित देवताओं की संतुष्टि के लिये किये जानेवाले याज्ञिक अनुष्ठानों की पौराणिक व्याख्यायें जो ब्राह्मणग्रन्थों में मिलती हैं उनका संग्रह भी प्रायः इसी देश में हुआ है और यहां ही सब से पहले बड़े २ यज्ञ-सत्रों का सम्पादन शुरू हुआ है ।