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संस्कृति
भारत की अहिंसा संस्कृति ।
(ग) इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः ।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥ १.२.१०
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अर्थात् वैदिक मन्त्रों में जिन याज्ञिक कर्मों का विधान है वे निःसंदेह त्रेतायुग में ही बहुधा फलदायक होते हैं । उन्हें करने से पुण्यलोक की प्राप्ति होती है। इनसे मोक्ष की सिद्धि नहीं होती; क्योंकि ये यज्ञरूपी नौकाएं जिन में अढारइ प्रकार के कर्म जुड़े हुए हैं, संसारसागर से पार करने के लिए असमर्थ हैं। जो नासमझ लोग इन याज्ञिक कर्मों को कल्याणकारी समझकर इनकी प्रशंसा करते हैं उन्हें पुनः जरा और मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है । जो मूढजन यज्ञयाजन को और पूर्व अर्थात् कूप, बावड़ी आदि बनवाने को सर्वोत्तम मानते हैं, कल्याणमार्ग इससे भिन्न नहीं जानते, वे स्वर्गों के पुण्यफल भोग कर पुनः इसी हीनतर दुःखमय लोक को प्राप्त होते हैं ।
( ६ ) अ. ९.२०, २१ में भी कहा है
विधा मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्रा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमनन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् ॥ ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥
अर्थात् जो ( त्रैविध) तीनों वेदों के कर्म करनेवाले, सोम पीनेवाले पुरुष यज्ञ से स्वर्गलोक प्राप्ति की इच्छा करते हैं वे इन्द्र के पुण्यलोक में पहुंच कर अनेक दिव्य भोग भोगते हैं और उस विशाल स्वर्गलोक का उपभोग कर के पुण्य का क्षय हो जाने पर वे फिर मृत्यु - लोक में आते हैं ।
( ७ ) महाभारत शान्तिपर्व अ. २४१ में शुकदेवने कर्म और ज्ञान का स्वरूप पूछते हुए व्यासजी से प्रश्न किया है - पिताजी ! वेद में ज्ञानवान् के लिए कर्मों का त्याग और कर्म - निष्ठ के लिए कर्मों का करना ये दो विधान हैं; किन्तु कर्म और ज्ञान ये दोनों एक दूसरे के प्रतिकूल हैं; अत एव मैं जानना चाहता हूं कि कर्म करने से मनुष्यों को क्या फल मिलता है और ज्ञान के प्रभाव से कौनसी गति मिलती है ? व्यासजीने उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है - वेद में प्रवृत्ति और निवृत्ति दो प्रकार के धर्म बतलाये गये हैं । कर्म के प्रभाव से जीव संसार के बन्धन में बंधा रहता है और ज्ञान के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। इसी से पारदर्शी संन्यासी लोग कर्म नहीं करते । कर्म करने से जीव फिर जन्म लेता हैं । किन्तु ज्ञान के प्रभाव से नित्य - अव्यक्त-अव्यय परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। मूढ लोग कर्म की