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संस्कृति
जीवों की वेदना |
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इस विश्व में यदि निराबाध सुख चाहते हो तो जिस प्रकार मार्गातिक्रामक अश्व को बागडोर मोड़ कर सुपथ पर लाया जाता है, उसी प्रकार इष्ट, अनिष्ट विषयों के राग-द्वेष से तुम अपने मन को मोड़ कर साधना के सुपथ पर लगाओ, इच्छओं का निग्रह करो और सुकुमार से कोमल शरीर का मोह छोड़ कर आतापना लो, क्लेशाकुल विश्व में सुख प्राप्त करने का यही एक मात्र उपाय है ।
श्रमण का सुख -
वेदनीय कर्म के क्षयोपशम से होनेवाला श्रमणों का आध्यात्मिक सुख केवल अनुभवगम्य होता है, शब्दगम्य नहीं । फिर भी मानव की जिज्ञासा पूर्ती करने के लिए भगवान् महावीरने श्रमण के सुख की तुलना की है :
एक मास के दीक्षित का सुख व्यन्तर देवों के सुख से, दो मास के दीक्षित श्रमण का सुख नागकुमार आदि भवनपतियों के सुख से, तीन मास के दीक्षित श्रमण का सुख असुरेन्द्र के सुख से, आगे क्रमशः यावत्, एक वर्ष के दीक्षित का सुख सर्वार्थसिद्ध के देवों के सुख से अधिक है । यह वर्णन रत्नत्रय के यथार्थ आराधक श्रमण का है । ( भग० श० १४, उ०९ ) श्रमण की साधना
जिस प्रकार पाथेय ( वह भोज्य वस्तु जिसे पथिक राह में खाने के लिए अपने साथ जाता है) साथ लेनेवाले मनुष्य की यात्रा सुखद और न लेनेवाले की यात्रा दुःखद होती है, इसी प्रकार रत्नत्रय की साधना रूप पाथेय साथ लेनेवाले साधक की परभव यात्रा सुखद और न लेनेवाले की परभव यात्रा दुःखद होती है । ( उत्त० )
सिद्धों का सुख
वेदनीय कर्म के आत्यंतिक क्षय से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है । यद्यपि सिद्धों का सुख अनुपम है, फिर भी समझने के लिये कुछ कल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं
GOSTOS
१. जिस प्रकार एक पुरुष सर्व रसनिष्पन्न भोजन से क्षुधा पिपासा से निवृत्त हो जाय और उसकी उस अविच्छिन्न अमित तृप्ति के सुख से सिद्धों के सुख की तुलना की जाय तो तुलना नहीं हो सकती ।
२. संसार के समस्त मानवीय और दैवी सुख से भी सिद्धों के सुख की तुलना नहीं हो सकती ।
३. शाश्वत, अनन्त, अतीत, अनागत और वर्तमान के देवी सुख से भी सिद्धों के सुख की तुलना नहीं हो सकती ।
( उबवाई)