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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
आध्यात्मिक सुख
वेदना प्रचुर इस विश्व में सुख कहां ? जहां देखो वहां दुःख ही दुःख है । यथा गाथा - जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य ।
अही दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जंतुणो ॥ १५ ॥ ( उत० अ० १९ ) यद्यपि सातावेदनीयके उदय से वैषयिक सुख का अनुभव सांसारिक जीवों को होता है; किन्तु वह भी सुख नहीं, सुखानुभास है । क्यों कि
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गाथा - जहा किंपाग फलाणं, परिणामो न सुन्दरो ।
एवं भूत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥ ( उत० १९ - १७.) आयुर्वेद में किंपाक फल, मीठा विष ' वच्छनाग' को कहते हैं। जिस प्रकार मीठा विष खाते समय मीठा लगता है; किन्तु परिणमन होने पर प्राणहर होता है। इसी प्रकार क्षणिक वैषयिक सुख प्रारम्भ में अच्छे लगते हैं और बाद में उन सुखों की आसक्ति से ही व्यक्ति के प्राण जाते हैं ।
अथवा श्लेष्म का आस्वादन करती हुई मक्षिका श्लेष्म से लिपट कर ही मरती है, इसी प्रकार भोगों में आसक्त व्यक्ति की मृत्यु भी भोगों के भोगते २ ही होती है; अतएव श्रमण की साधना आध्यात्मिक सुख के लिए होती है । जिस प्रकार विद्यार्थी का अध्ययनकाल सुखमय नहीं होता, अपितु अध्ययन के बाद का जीवन सुखमय होता है । इसी प्रकार श्रमण का साधना काल सुखमय नहीं होता अपितु उत्तरकाल सुखमय होता है; क्योंकि साधनाकाल में अनेक प्रकार के उपसर्ग, परीषह तथा तपाचरणजन्य दुःख होते हैं । किन्तु —
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यत्तदग्रे विषमित्र, परिणामेऽमृतोपमम् । तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तं, गीता० ॥ ३७ ॥
साना की सफलता पर प्राप्त होनेवाला सुख अव्याबाध होता है । कहा भी हैसब दुक्ख पहीणट्ठा-पक्कमंति महेसिणो " अर्थात् दुःखों का समूल नाश करने के लिए महर्षियों की साधना होती है ।
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आत्मिक सुख का अमोघ उपाय -
भगवान् महावीर ने कहा
गाथा - आयावयाही । चय सोगमलं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिन्दादि दोसं विणएज रागं, एवं सुही होहिसि सम्पराए ॥ ५ ॥
( दशवै० अ० २ )