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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और उद्धृत अंश में कौरव-पाण्डवकालीन भारतीय संस्कृति का काफी आलोक है । यह वही युग है जबकि रैवतक पर्वत (सौराष्ट्र देश का गिरनार पर्वत) के विख्यात सन्त अरिष्टनेमि अपने तप, त्याग और विश्वव्यापी प्रेमद्वारा भारत की अहिंसामयी संस्कृति को देश-विदेशों में सब ओर फैला रहे थे ।
(२) इस ही कौरव-पाण्डवकाल के दूसरे प्रसिद्ध सन्त विदुर हुये हैं । वे महाभारत स्त्रीपर्व अध्याय ७ में धृतराष्ट्र को यों उपदेश देते हैं
दमस्त्यागोऽप्रमादश्च ते त्रयो ब्रह्मणो हयाः। शीलरश्मिसमायुक्तः स्थितो यो मानसे रथे ।
त्यक्त्वा मृत्युभयं राजन् ! ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ महाभारत स्त्रीपर्व ७. २३-२५ अर्थात् दम, दान और अप्रमाद ही आत्मा के तीन घोड़े हैं। जो इन घोड़ों से युक्त मनरूपी रथ पर सवार होकर सदाचार की बागडोर संभालता है वह मौत के भय को छोड़कर ब्रह्मलोक में पहुंच जाता है।
(३ ) आज से २८०० वर्ष पूर्व भगवान् पार्श्वनाथने जिनका जन्मस्थान वाराणसी और निर्वाणस्थान बिहार-प्रान्त के जिल्ला हजारास्थित सम्मेतशिखर है, बतलाया था किअहिंसा जीवन का स्वभाव है, अहिंसा ही जीवनलोक का आधार है, अहिंसा ही मानव धर्म है, अहिंसा मानव की श्रेष्ठता है, अहिंसा से ही मनुष्य मोक्ष का अधिकारी बनता है । भगवान् पार्श्वनाथने अहिंसा के साथ सत्य, अपरिग्रह और अचौर्य धर्मों को भी शामिल करके चतुर्याम या चतुष्पाद् धर्म की प्रवृत्ति सर्वसाधारण में फैलाई थी' ।
(४) इसी प्रकार आज से कोई २५०० वर्ष पूर्व भारत के अन्तिम तीर्थंकर महावीरने कहा था
धम्मो मङ्गलमुक्किट्ठ, अहिंसा सञ्जमो तवो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो । दशवैकालिकसूत्र १-६
अर्थात् अहिंसा ( दया ), संयम ( दमन ), तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मङ्गल है। जो इस धर्ममार्ग पर चलते हैं, देवलोक भी उन्हें नमस्कार करते हैं ।
ईसा की दूसरी सदी के महान् आचार्य समन्तभद्र भगवान् महावीर की दिव्यवाणी का संक्षेप में यों व्याख्यान करते हैं
१ (अ) स्थानांगसूत्र क्रमांक २६६. (आ) उत्तराध्ययनसूत्र २३. ८-२७ ॥ (इ) व्याख्याप्रशप्ति २०. ८. (ई) मूलाचार ॥ ७. १२५-१२९ ॥ ३४.