________________
संस्कृति जीवों की वेदना।
२८१ नारकीय वेदना
नारकीय जीव दस प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं-सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, कण्डू, चिंता, भय, शोक, जरा और व्याधि । (ठा० अ० १०, भग० श० ७, उ० ८.)
जिस प्रकार सशक्त सुदृढ़ शिल्पी लोहे को पक्ष पर्यन्त प्रखर ताप से तपाकर यदि उष्ण वेदना से विकल नैरयिक पर डाले तथापि मानव लोक का अत्युष्ण लोहा उस नैरयिक को उष्ण प्रतीत नहीं होता है। अथवा जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु में सूर्यताप से संतप्त वृद्ध गजराज जलाशय में जलक्रीडा करके सुखानुभव करता है, ठीक इसी प्रकार उष्ण वेदनावान् नैरयिक भी मानवलोक की प्रचण्ड अग्नि में सुखद स्पर्श का अनुभव करता है । इसी प्रकार शीत वेदनावाले नैरयिक को भी मानवलोक के हिमपुञ्ज का अति शीत स्पर्श भी शीत प्रतीत नहीं होता है। उक्त दोनों उदाहरणों में शीत स्पर्श का कथन घटित करना चाहिए। (जीवा० प्रति. ३) स्थावर जीवों की वेदना
__ पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों की वेदना का स्वरूप समझाने के लिए सर्वज्ञ भगवान् महावीरने दो उदाहरण दिये हैं:
जिस प्रकार बलवान युवा पुरुष जराजर्जरित देह-दुर्बल-ग्लान वृद्ध के मस्तक पर अपने दोनों हाथों से प्रहार करता है, उस समय वह वृद्ध जैसी वेदना का अनुभव करता है उससे भी अधिक अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ वेदना का अनुभव स्थावर जीव करते हैं।
(भग० श० १९, उ० ३.) अथवा-जिस प्रकार एक अपंग, अंब, मूक, बधिर व्यक्ति के बदन में एक युवा पुरुष सुचीवेध करता है, उस समय उस अपंग, अंध, मूक, बधिर व्यक्ति को जैसी वेदना होती है वैसी ही वेदना स्थावर जीवों को होती है। वेदना की अनुभूति भी उस पुरुष की तरह स्थावर जीव भी केवल स्पर्श इन्द्रिय से कर सकते हैं।
(आचा० प्रथम ) देवताओं का सुख-संवेदन
जिस प्रकार एक स्वस्थ सुन्दर और संपन्न युवक अपनी अति सुन्दरी नवविवाहिता प्राणप्रिया को अपने घर छोड़कर व्यापार के लिए विदेश में जाय। वहां वह सोलह वर्ष तक व्यापार करता रहे और संचित विपुल धनराशि को लेकर पुनः स्वदेश लौटे, उस समय वह चिर विवाहिता प्राणप्रिया पतिदेव का हृदय से स्वागत करे और वह पाककुशला विविध पक्वान्न, मिष्टान और व्यञ्जन बनाये। युवक भी स्नान करके वसनमूषण से सुसज्जित होकर भोजन करने बैठे, पत्नी पंखा झलती रहे और पति को भोजन कराती रहे । भोजन के बाद युवक स्वजन