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संस्कृति
उत्सर्ग और अपवाद |
है - " जगती तल के समग्र जीव-जन्तु जीवित रहना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता; क्यों कि सब को अपना जीवन प्रिय है। प्राणीवध घोर पाप है; इस लिये निर्गन्थ भिक्षु इस घोर पाप का परित्याग करते हैं ।
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इसका अपवाद भी होता है। आचारांग में कहा गया है कि " एक मिक्षु जो कि अन्य मार्ग न होने पर विषम पथ से जा रहा है, यदि वह गिरने लगे, पड़ने लगे तो वह अपने आप को गिरने से बचाने के लिये तरू को, गुच्छ को, गुम्फ को, लता को, वल्ली को तथा तृण, हरित आदि को पकड़ कर संभल जाए और फिर अपने मार्ग पर चढ़ जाय । या ऊपर से नीचे उतर जाय । "
भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग तो यह है कि वह किसी भी प्रकार की हिंसा न करे । परन्तु हरित वनस्पति को पकड़ कर चढ़ने या उतरने में कितनी हिंसा होती है ! जीवों की कितनी विराधना होती है ! इसी प्रकार भिक्षु को नदी पार करने का विधान भी आया है । यहाँ पर उत्सर्ग को छोड़ कर अपवाद मार्ग पर आना ही पड़ता है । जीवन आखिर जीवन ही है । उत्सर्ग में रह कर समाधि रहे तो वह ठीक । यदि अपवाद में समाधि भाव रहे तो वह भी ठीक । संयम में समाधि रहे यही मुख्य बात है 1
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सत्य भाषण यह भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग है । दशवैकालिक में कहा है_" मृषावाद, असत्य भाषण लोक में सर्वत्र एवं समस्त महापुरुषों द्वारा यह निन्दित है । असत्य भाषण अविश्वास की भूमि है । इस लिये निर्गन्थ मृषावाद का सर्वथा त्याग करते हैं । "
परन्तु साथ में इसका अपवाद भी है। आचारांग सूत्र में वर्णन आता है कि एक भिक्षु मार्ग में जा रहा था । सामने से एक व्याध या कोई मनुष्य आ गया, बोला- " आयुष्मन् श्रमण ! क्या तुमने किसी मनुष्य अथवा पशु आदि को इधर आते-जाते देखा है ? " इस प्रकार के प्रसंग पर प्रथम तो भिक्षु उसके वचनों की उपेक्षा कर के मौन रहे । यदि बोलने
१ स जीवा वि इच्छंति, जीविउँ न मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥
३. वै. अ. ६. गा. ११.
२ " से तत्थ पयलमाणे वा, रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा, गुम्माणि वा, लयाओ वा, वल्लीओ वा, तगाणि वा, हरियागि वा अत्रलंबिय अत्रलंबिय उत्तरिजा...! -- आचारांग, २ श्रुत, ईर्याध्ययन, उद्देश २,
- द. वै. अ. ६, गा. १३,
३ " मुसावाओ य लोगम्मि, सबसाहूहिं गरिहिओ ।
अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥
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