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संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगणा में जैन तत्त्वज्ञान की गंभीरता। २४३ विकृतियों से यह आत्म-तत्त्व मूलतः पूर्णतया रहित है और उनसे भिन्न है । प्रत्येक आत्मा अनंत शक्तिशाली और अनंत सात्विक सद्गुणों का पिंड-मात्र है। वास्तविक दृष्टि से ईश्वरत्व और आत्म-तत्त्व में कोई अन्तर नहीं है। यह जो विभिन्न प्रकार का अन्तर दिखलाई पड़ रहा है उसका कारण बाह्य-कारणों से संलग्न और उसमें विजड़ित वासनाएं और संस्कार हैं। इन्हीं से विकृतिमय अन्तर अवस्था की उत्पत्ति होती है। वासना और संस्कारों के हटते ही आत्मा का मूल स्वरूप प्रगट हो जाया करता है। जैसे कि बादलों के हटते ही सूर्य का प्रकाश और धूप निकल आती है, वैसे ही यहाँ भी समझ लेना चाहिये । अखिल विश्व में और संपूर्ण ब्रह्माण्ड में अनंतानंत गुणित अनंतानंत आत्माएं पाई जाती हैं। इनकी गणना कर सकना ईश्वरीय ज्ञान के भी बहिर की बात है। ये अपरिमित और अनुपमेय संख्या में विद्यमान हैं। परन्तु सभी आत्माओं में गुणों की एक समानता होने के कारण से जैनदर्शन का यह दावा है कि प्रत्येक आत्मा सात्विकता और नैतिकता के बल पर ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है; याने अपने में स्थित सम्पूर्ण ईश्वरत्व को प्रत्येक चेतनकणरूप आत्मा प्रकटित कर सकता है । इस प्रकार आजदिन तक अनेकानेक आत्माओंने ईश्वरत्व की प्राप्ति की हैं। ईश्वरत्व प्राप्ति के पश्चात् ये आत्माएं भूतकाल में ईश्वरत्वप्राप्त अनेकानेक आत्माओं की ज्योति में उनके समान ही उद्भूत ज्योतिरूप होती हुई अभिन्नरूप से संमिश्रित हो जाती हैं तथा परस्पर में समान रूप से एकत्व और एकरूपत्व प्राप्त कर लेती हैं। इस प्रकार अंतरहित समय के लिये याने सदैव और निरन्तर के लिये ये आत्माएं इस संसार से परिमुक्त हो जाती हैं।
मुक्त होने के पश्चात् संसार में पुनः लौटकर आना उनके लिये सर्वथा असंभव हो जाता है । क्यों कि संसार-आगमन का कारण संस्कार और वासनाएं हैं जो कि उन मुक्त आत्माओं से सर्वथा आत्यंतिक रूप से विलग हो चुकी हैं। इस प्रकार संसार का कारण नष्ट हो जाने से पुनः जन्म-मरण जैसे कार्य भी आत्यंतिक रूप से क्षीण हो जाया करते हैं । उपरोक्त रीति से मुक्त और ईश्वरत्वप्राप्त आत्मायें पूर्णतया वीतरागी होने से संसार के सर्जन, विनाशन, रक्षण, परिवर्धन और नियमन आदि प्रवृत्तियों से सर्वथा परिमुक्त होती हैं । वीतरागता के कारण से ही सांसारिक प्रवृत्तियों में भाग लेने का उनके लिये कोई कारण शेष नहीं रह जाता है । यह है जैनदर्शन की 'आत्मतत्त्व और ईश्वरत्व' विषयक मौलिक दार्शनिक विचारधारा जो कि हर आत्मा में पुरुषार्थ, स्वाश्रयता, कर्मण्यता, नैतिकता, सेवा, परोपकार एवं सात्विकता की उच्च और उदात्त लहर पैदा करती है।
संसार में जो विभिन्न-विभिन्न आत्म-तत्त्व की श्रेणियाँ दिखाई दे रही हैं उनका कारण