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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और ' उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् ' इस सूत्र के द्वारा उल्लेख किया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो सत् याने रूप अथवा भावरूप है उसमें प्रत्येक क्षण-क्षण में नवीन-नवीन पर्यायों की उत्पत्ति होती ही रहती है एवं पूर्व पर्यायों का नाश अथवा परिवर्तन होता रहता है; परन्तु फिर भी मूल द्रव्य की द्रव्यता, मूल सत् की सत्ता पर्यायों के परिवर्तन होते रहने पर भी धौव्यरूप से बरावर कायम रहती है। विश्व का कोई भी पदार्थ इस स्थिति से वंचित नहीं है।
___ भारतीय साहित्य के मध्य-युग में तर्क-जाल- संगुम्फित घनघोर शास्त्रार्थ रूप संघर्षमय समय में जैन-साहित्यकारोंने इसी स्याद्वाद सिद्धान्त को ' स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति
और स्यात् अवक्तव्यं ' इन तीन शब्द-समूह के आधार पर सप्तभङ्गी के रूप में स्थापित किया है । इस प्रकारः
(१) " उप्पन्ने वा, विगएवा, धुवे वा " नामक अरिहंत-प्रवचन, (२) “सिया अस्थि, सिया नस्थि, सिया अवक्तवं" नामक आगम-वाक्य, (३) “ उत्पाद-ध्रौव्य-युक्तं सत् ” नामक संस्कृत-शब्द सूत्र और (४) " स्याद् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्यं " नामक संस्कृत वाक्य ।
ये सब स्याद्वाद-सिद्धान्त के वाचक रूप हैं, शब्द रूप कथानक हैं अथवा भाषा रूप शरीर हैं । स्याद्वाद का यही बाह्य रूप है।
स्याद्वाद के संबंध में विस्तृत लिखने का यहाँ पर अवसर नहीं है; अत एव विस्तृत जानने के इच्छुक महानुभाव अन्य ग्रंथों से इस विषयक ज्ञान प्राप्त करें। इस प्रकार विश्वसाहित्य में जैन-दर्शन द्वारा प्रस्तुत अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद एक अमूल्य और विशिष्ट योगदान है, जो कि सदैव उज्ज्वल नक्षत्र के समान विश्वसाहित्याकाश में अति ज्वलंत ज्योति के रूप में प्रकाशमान होता रहेगा और विश्व-धर्मों के संघर्ष में चीफजस्टिस याने सौम्य प्रधान न्याय-मूर्ति के रूप में अपना गौरवशील स्थायी स्थान बनाये रक्खेगा। कर्मवाद और गुणस्थान
जैन-दर्शन ईश्वरीय-शक्ति को विश्व के कर्ता, हर्ता और धर्ता के रूप में नहीं मानता है, जिस का तात्पर्य ईश्वरीय सत्ता का विरोध करना नहीं है; अपितु आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही भोक्ता है-इसमें नियामक का कार्य स्वकृत कर्म ही करते हैं। कर्म का उल्लेख वासना शब्द से, संस्कार शब्द से और प्रारब्ध शब्द से तथा ऐसे ही अन्य शब्दों द्वारा भी किया जा सकता है। ये कर्म अचेतन हैं, रूपी हैं, पुद्गलों के अति सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम अंश से निर्मित होते हैं । ये अखिल लोक-व्यापी होते हैं। कर्म--समूह अचेतन और जड़ होने पर