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संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तस्वज्ञान की गंभीरता। २५५ विपुल वर्ग और विद्वानों का समूह रहा है। जिन का सारा जीवन चिंतन में, मनन में,
अध्ययन में और विविध विषयों में उच्च से उच्च कोटि के ग्रंथों का निर्माण करने में ही व्यतीत हुआ है। खासतौर पर जैन-साधुओं का बहुत बड़ा भाग प्रत्येक समय में इस कार्य में संलम रहा है। इस लिये अध्यात्म, दर्शन, वैद्यक, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र, संगीत, सामुद्रिक और लाक्षणिक-शास्त्र, भाषाशास्त्र, छंद, काव्य, नाटक, चंपू, पुराण, अलंकार, कथा, कोष, व्याकरण, तर्कशास्त्र, योग-शास्त्र, चित्रकला, स्थापत्यकला, मूर्तिकला, गणित, नीति, जीवन. चरित्र, इतिहास, तात्त्विक-शास्त्र, आचार-शास्त्र, लिपि-कला, ध्वनि-शास्त्र, पशु-विज्ञान एवं सर्व-दर्शनसंबंधी विविध और रोचक तथा ललित-ग्रंथोंका हजारों की संख्या में निर्माण हुआ है।
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तामिल, तेलगु, कन्नड़, गुजराती, हिन्दी, महाराष्ट्रीय एवं इतर भारतीय और विदेशी भाषाओं में भी जैन-ग्रंथों का निर्माण हुआ है। जैन-साहित्य की रचना अविछिन्न धारा के साथ मौलिकतापूर्वक विपुल मात्रा में प्रत्येक समय में होती रही है। और इसी लिये जैनवाङ्गमय में 'विविध भाषाओं का इतिहास', 'लिपियों का इतिहास', 'भारतीय-साहित्य का इतिहास', 'भारतीय-संस्कृति का इतिहास', 'भारतीय राजनैतिक ईतिहास' एवं 'व्यक्तिगत जीवन-चरित्र' आदि विभिन्न इतिहासों की प्रामाणिक सामग्री भरी पड़ी है। जिसका अनुसंधान करने पर भारतीय-संस्कृति के समुज्वल पटल पर रोचक, ज्ञान-वर्धक और प्रामाणिक प्रकाश पड़ सकता है ।
__ जैन-साहित्य के विविध कारणों से हजारों ग्रंथों के विनष्ट हो जाने के बावजूद भी आज भी अप्रकाशित ग्रंथों की संख्या हजारों तक पहुंच जाती है, जो कि भारत के और विदेशों के विविध भंडारों और पुस्तकालयों में संग्रहित है । जैन-दर्शन के कर्म-कर्ता-वादी और पुनर्जन्मवादी होने से इसका कथा-साहित्य विलक्षण मनोवैज्ञानिक शैली वाला है। और इसी कारण से यह कथा-साहित्य आत्मा को स्वाभाविक, वैभाविक और उभयात्मक अनन्त वृत्तियों का और प्राणियों की जीवन-घटनाओं का विविध शैली से और आश्चर्यजनक प्रणाली से चित्रण करता हुआ रोचक एवं ज्ञान-वर्धक विश्लेषण करने वाला है। अतएव इस की कथा-निधि विश्व-साहित्य की महती एवं अमूल्य संपदा है-जो कि प्रकाश में आने पर ही ज्ञात हो सकती है।
जैन मूर्ति-कला और जैन स्थापत्यकला भारतीय-कला के क्षेत्र में अपना विशिष्ट और महान् स्थान रखती है । जैन कला का ध्येय · सत्यं, शिवं और सुन्दरं ' की साधना करना ही रहा है और इस दृष्टि से ' कला केवल कला के लिये ही है ' के साथ में उससे