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संस्कृति जीपों की वेदमा ।
.. २७७ हे गौतम ! उदय हुए कर्म का ही वेदन करता है, अनुदय कर्म का नहीं । और यही स्थिति चौवीस दंडक स्थित समस्त सांसारिक जीवों की है। जिस प्रकार वृक्ष का धान्य या बीज बोते ही फलप्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार विपाक काल पूरा हुए बिना कर्मफल की प्राप्ति नहीं होती है।
(भग० श० १ उ० २.) एकान्त दुःख
मगवान महावीर के समकालीन कुछ दार्शनिक ऐसे थे जो संसार में केवल दुःख ही दुःख मानते थे; किन्तु उनका यह मन्तव्य भगवान् महावीर की दृष्टि में युक्तिसंगत नहीं था। क्यों कि नैरयिक जीवों में एकान्त दुःख वेदना होते हुए भी कुछ क्षण सुख संवेदन के होते हैं और वे क्षण तीर्थंकर-जन्म और मित्रदेव के मिलने के होते हैं। ___भवनपति आदि चारों देवनिकायों में यावज्जीवन सुख संवेदन होते हुए भी कुछ क्षण दुःख वेदन के होते हैं और वे क्षण परस्पर विग्रह, मात्सर्य, च्यवन से पूर्व, अन्य देव द्वारा देवी या आभरण का अपहरण आदि के होते हैं । तिर्यंच और मनुष्य भी अपने जीवन में कभी सुख और कभी दुःख का अनुभव करते हैं। (भग० श० ६ उ० १०.) वेदना में परिवर्तन
जो जीव इस जन्म में दुःखी है वह अनन्त अतीत के जन्मों में भी दुःखी ही था और अनन्त अनागत जन्मों में भी वह जीव दुःखी ही रहेगा। इसी प्रकार जो जीव इस जन्म में सुखी है वह अतीत में भी सुखी था और अनागत में भी सुखी ही रहेगा । दुःखी सुखी नहीं हो सकता और सुखी दुःखी नहीं हो सकता-कुछ दार्शनिक जन साधारण में ऐसी प्रान्त धारणा फैला रहे थे। इस संबंध में भगवान् महावीर से गौतम गणधरने एक समय पूछा
हे भगवन् ! जीव तीनों काल में कभी दुःखी और कभी सुखी-इस प्रकार नाना रूपों में परिणत होता है या एक रूप में ही स्थित रहता है !
हे गौतम ! कर्मबद्ध जीव कभी दुःखी और कभी सुखी-इस प्रकार नाना रूपों में परिणत होता है । किन्तु एक रूप में परिणत नहीं रहता। कर्ममुक्त जीव ही एक रूप में परिणत रहता है।
(भग० श० ६, उ० १०.) वेदना के भेद और संवेदनशील जीवों का वर्गीकरण
१. सुख-दुःख और दुःख-सुख का एक साथ संवेदन । २. साता-असाता और साता-असाता साता असाता का एक साथ संवेदन ।