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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और ३. तीनों वेदना चौवीस दंडक स्थित समस्त सांसारिक जीवों को होती हैं ।
(पन्न० पद ३५.) सुख-दुःख और साता असाता का अन्तर
वेदनीय कर्म के यथानुक्रम उदय से जो सुख-दुःख का अनुभव होता है उसे साता और असाता कहते हैं और विपाक काल के पहले किसी विशिष्ट प्रक्रिया से उदय में लाए गये वेदनीय कर्म से जो साता असाता का अनुभव होता है उसे सुख और दुःख कहते हैं। यद्यपि सुख और दुःख के कारण आत्मा में एक समय विद्यमान रहते हैं; किन्तु उनका वेदन क्रमशः होता है। क्यों कि एक समय में एक ही उपयोग होता है और जहां वेदना के तीसरे भेद में सुख-दुःख अथवा साता असाता का एक साथ संवेदन माना गया है-वहां
औपचारिक कथन समझना चाहिए। जैसे-प्रसववेदना और पुत्र-जन्म इस उदाहरण में सुख-दुःख का एक साथ संवेदन औपचारिक भाषा में कहा जाता है । वास्तव में सुख और दुःख के संवेदन के क्षण भिन्न-भिन्न होते हैं। क्यों कि अविभाज्य काल को एक समय कहते है। अतएव एक समय का काल अत्यन्त सूक्ष्म होता है।
(पन्न० टीका.) वेदना के दो रूप. "आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी" जो वेदना स्वतः स्वीकार की जाय वह आभ्युपगमिकी वेदना कही जाती है-जैसे जैन साधुओं का केश-लुंचन और आतापना आदि ।
जो वेदना वेदनीय कर्म के उदय अथवा उदीरणा से होती है वह ओपक्रमिक की कही जाती है। नेरयिक और संमूर्छिम, तिर्यंच तथा चारों निकायों के देव औपक्रमिक की वेदना का अनुभव करते हैं। गर्भज, तिथंच और मनुष्य आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी दोनों ही वेदना का अनुभव करते हैं ।
( पन्न० पद ३५.) फल की अपेक्षा से वेदना के दो भेद___एवंभूत वेदना, अनेवंभूत वेदना । " बद्धकर्म के अनुसार फल प्राप्त होना एवंभूत वेदना और बद्धकर्म में परिवर्तन होकर फल प्राप्त होता अनेवंभूत वेदना कही जाती है।
भगवान् महावीर के समय में राजगृह में कुछ ऐसे दार्शनिक थे जो निश्चित रूप से समस्त सांसारिक जीवों को एवंभूत वेदना अर्थात्-बिना किसी परिवर्तन के कर्मफल की प्राप्ति होना मानते थे। किन्तु भगवान महावीर चौवीस दंडक स्थित समस्त सांसारिक जीवों में एवंभूत वेदना और अनेवंभूत वेदना दोनों वेदना होना मानते थे। क्योंकि कर्मों का स्थितिघात और रसघात होता है। शुभ अध्यवसाय एवं शुभअनुष्ठान द्वारा कर्मों की तीव्रफलदा