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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और और दुःखी होते हैं। व्यवहार में सुख-दुःख के निमित्त कारण अन्य हो सकते हैं; किन्तु वास्तव में उपादान कारण तो व्यक्ति का स्वकृत कर्म ही होता है । (भग० श० १७, उ० ४.) गाहाओ-जहेह सीहोव मिअङ्गहाय, मच्चू नरं नेइ हू अंतकाले ।
नतस्त माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंसहरा भवंति ॥ न तस्स दुक्खं विभयंतिनाइओ, न मित्त वग्गा न सुया न बंधवा ।
एकोसयं पञ्चणु होइ दुक्खं, कतारमेव अणुजाइ कम्मं ।। (उत० अ० १३.) जिस प्रकार मृग को सिंह ले जाता है उस समय उसे कोई बचा नहीं सकता है। इसी प्रकार मानव को मृत्यु ले जाती है, उस समय उसके माता-पिता, भाई-बहन, स्वजन
और मित्र कोई उसे बचा नहीं सकते और न उसके दुःखों को बांट सकते हैं। अपितु अपने किये हुए कमों को वही भोगता है; क्यों कि कर्म कर्ता का ही अनुसरण करता है ।
इसके लिये आगम में एक उदाहरण है :
मालव देश के एक गांव में एक सेठ बहुत ही संपन्न था । उसके मकान की दिवारें काठ की बनी हुई थीं । कुछ चोर उस सेठ के वहां चोरी करना चाहते थे, किन्तु वे लकड़ी की दीवार में सेंध लगाना नहीं जानते थे। इस लिए वे एक चतुर बढ़ई को कुछ प्रलोभन देकर साथ ले गए । इधर बढ़ई दीवार में बड़ी कुशलता से कर्णिकाकार छेद बना रहा था । उधर खट २ की आवाज से गृहस्वाभी जाग गया था। छिद्र तैयार होने पर चोरोंने कहा, " पहले तूं प्रवेश कर, बाद में हम । " बढ़ई ने ज्यों ही अन्दर पैर डाले, सतर्क गृहस्वामीने उसके पैर पकड़ लिए । बढ़ईने साथी चोर से कहा, "कोई अन्दर खेंच रहा है। इस लिए तुम मुझें बाहर खेंचो।" गृहस्वामी और चोर बढ़ई को पूरा बल लगाकर बहुत देर तक खेचते रहे । इस खींचतान की प्रबल पीड़ा से बढ़ई अपने ही बनाये हुए सेंध में मर गया । इसी तरह किए हुए कमों का क्षय(मोक्ष) फल भोगे बिना नहीं होता। (उत० अ० ४, गा०३.) वेदना का अनुभव
जीव जब निश्चित रूप से आत्मकृत वेदना का अनुभव करता है, तब तो जिस प्रकार भोजन करते ही क्षुधा शान्त होती है और पानी पीने पर पिपासा शान्त होती है। इसी प्रकार कर्मबन्ध होते ही कर्मफल की प्राप्ति होनी चाहिए। किन्तु कर्म सिद्धांत के अनुसार कर्मबन्ध के बाद भी विपाक काल " अबाधाकाल " पूरा हुए बिना फलप्राप्ति नहीं होती है । इस देरी का कारण जानने के लिए भगवान् महावीर से गौतम गणधरने एक समय पूछाः
हे भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख -सुख का वेदन करता है !