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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और करता है और ब्रह्मांड की अनन्तता जैसा बयान करता है, उस सब की तुलना जैन-दर्शन में वर्णित चौदह राजू प्रमाण लोक-स्थिति से और लोक के क्षेत्र-फल से भाषाभेद, रूपकभेद और वर्णनभेद होने पर भी ठीक-ठीक रीति से की जा सकती है।
__माज के भूगर्भ-वेत्ताओं और खगोलवेत्ताओं का कथन है कि पृथ्वी किसी समय में याने खरवों वर्ष पहले सूर्य का ही सम्मिलित भाग थी। ' नीलों और पों' वर्षों पहले इस ब्रह्मांड में किसी अज्ञानशक्ति से अथवा कारणों से खगोल-वस्तुओं में आकर्षण और प्रत्याकर्षण हुआ और उस कारण से भयंकर से भयंकर अकल्पनीय प्रचंड-विस्फोट हुआ जिससे सूर्य के कई-एक बड़े-बड़े भीमकाय टुकड़े छिटक पड़े। वे ही टुकड़े अरबों और खरबों वर्षों तक सूर्य के चारों ओर अनंतानंत पर्यायों में परिवर्तित होते हुए चक्कर लगाते रहे। अंत में वे ही टुकड़े आज बुध, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि, चन्द्र और पृथ्वी के रूप में हमारे सामने हैं । पृथ्वी भी सूर्य का ही टुकड़ा है और यह भी किसी समय में आग का ही गोला थी, जो कि असंख्य वर्षों में नाना पर्यायों तथा प्रक्रियाओं में परिवर्तित होती हुई आज इस रूप में उपस्थित है । उपरोक्त कथन जैन-साहित्य में वर्णित 'आरा-परिवर्तन' के समय की भयंकर अग्नि-वर्षा, पत्थर-वर्षा, अंधड़-प्रवाह, असहनीय और कल्पनातीत सतत जलधारावर्षण एवं अन्य तीक्ष्णतम एवं कर्कशतम पदार्थों की कठोर शब्दातीत रूप से अति भयंकर स्वरूपवाली वर्षा के वर्णन के साथ विवेचना की दृष्टि से कितनी समानता रखती है-यह विचारणीय है।
इतिहासज्ञ विद्वानों द्वारा वर्णित प्राक्-ऐतिहासिक युग में प्रकृति के साथ प्राकृतिक वस्तुओं द्वारा ही जीवन-व्यवहार चलानेवाले-मानवजीवन का चित्रण और जैनसाहित्य में वर्णित प्रथम तीन आराओं से संबंधित युगल जोड़ी के जीवन का चित्रण शब्दान्तर और रूपान्तर के साथ कितना और किस रूप में मिलता-जुलता है ! यह एक खोज का विषय है।
जैन-दर्शन हजारों वर्षों से वनस्पति आदि में भी चेतनता और आत्मतत्त्व मानता आ रहा है। साधारण जनता और अन्यदर्शन इस को नहीं मानते थे । परन्तु श्री जगदीशचन्द्र बोसने अपने वैज्ञानिक तरीकों से प्रमाणित कर दिया है कि वनस्पति में भी चेतनता और आत्मतत्त्व है। अब विश्व का सारा विद्वान् वर्ग इस बात को मानने लगा है। साहित्य और कला
भगवान् महावीरस्वामी के युग से ले कर आजदिन तक इन पच्चीस सौ वर्षों में अवि. छिन्नरूप से हर युग में और हर समय में जैन-समाज में उच्च कोटि के ग्रंथ-लेखकों का