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संस्कृति अपरिग्रह ।
२५९ शक्तियां हैं। वे दृष्टिगोचर नहीं। उनका कार्य से अनुभव होता है। जैसे आत्मा में सत्ता नामक शक्ति है; परन्तु उसका प्रत्यक्ष नहीं । वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से जानी जाती है । वात रोगका प्रत्यक्ष नहीं । पैरों में वेदना होने से उसके होनेका अनुभव किया जाता है । वह वैद्य को भी प्रत्यक्ष नहीं । नाड़ी की गति से अनुमान करता है कि अमुक रोग इसको है। हम आत्मा
और शरीर के मेल को आत्मा मानते हैं। दो पदार्थों को एक मानना दोनों के स्वरूप का परिचायक नहीं। इसीका नाम मिथ्याज्ञान है । यह ज्ञान जिसके सद्भाव में होता है उसीका नाम मिथ्यादर्शन है। जैसे जब कामला रोग हो जाता है, तब मनुष्य 'पीतः शंखः' यह भान करता है । यद्यपि शंख पीत नहीं हुवा; परन्तु कामला रोग में पीत ही दिखाई देता है । उस रोग के सद्भाव में यही होता है ।
अतः उससे लड़ना महती अज्ञता है-उसे अज्ञानी बताना सर्वथा अनुचित है । यदि उसके ऊपर आप का प्रेम है तो उसका कामला रोग दूर हो वह करना आप का कर्तव्य है।
उसको मूर्ख कहना किसीको शोभाप्रद नहीं । अन्तरङ्ग प्रमेय की अपेक्षा उसका ज्ञान सत्य है। बाह्य प्रमाण की अपेक्षा में वह ज्ञान मिथ्या है। अन्तरा के प्रमेय की अपेक्षा सत्य है । अतः बाह्य और अन्तरङ्ग २ प्रकार के प्रमेय हैं। अन्तरङ्ग प्रमेय की अपेक्षा कोई ज्ञान अप्रमाण नहीं । बाह्य प्रमेय की अपेक्षा प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है। हम व्यर्थ में ही परस्पर में विरोध कर लेते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि यदि किसीका ज्ञान प्रान्त है तो आप उस प्रान्ति को वारण करिये। सर्वथा तो मिथ्या नहीं है । अन्तरङ्ग प्रमेय तो है ही, किन्तु बाह्य प्रमेय नहीं है । इसीसे उसे प्रान्त कहते हो। जैसे किसीको रज्जु में सर्पभ्रान्ति हो गयी, वह भागता है। यदि उसके ज्ञान में सर्प न होता, तब वह भयभीत होकर पलायमान न होता। विचार से देखो तो उसका भागना, जब तक उसके ज्ञान में सर्प है, ठीक है। किन्तु जो कोई उसे यथार्थ ज्ञान करा देवे वही उसका मित्र है । हे भाई ! दूरत्वादि दोष से आप को रज्जु में सर्प की भ्रान्ति तो गई। वहां सर्प नहीं है, रज्जु है । तथाहि-प्रथम तो रज्जु में 'सर्पोऽयं यह सर्प है। उत्तरकाल में जब समीप क्षेत्र में आता है, तब प्रथम ज्ञान के विरुद्ध यह ज्ञान होता है' नायं सर्पः ' यह सर्प नहीं है। ऐसा बाह्य ज्ञान होने से भ्रान्ति का अभाव हो जाता है। मिथ्यात्व परिग्रहका स्वरूप
इसी प्रकार इस जीव को अनादिकाल से मिथ्यात्व रोग हो रह है । उसके उदय में शरीर में आत्मबुद्धि हो रही है। शरीर को ही आत्मरूपेण प्रतीति करता है। फल उसका नाना योनियों में पर्यटन होता है। ऐसी कोई भी योनि नहीं जहां इस जीवने जन्म न धारण किया हो।