________________
अपरिग्रह |
संतप्रवर श्री गणेशप्रसादजी वणा, इसरी. परिग्रह पाप निवार जिन जाना आतम पन्थ । आत्मतत्व में रमि रहे नमौं पूर्ण निर्ग्रन्थ ॥
इस भवाटवी संसार में प्राणियों की जो अवस्था हो रही है-वह किसी से गुप्त नहीं । प्रत्येक को अनुभव है । इसका मूल कारण क्या है ! इसका खरतरदृष्टि से विचार करना हमारा मुख्य ध्येय है ।
यदि आप अल्प उपयोग लगा कर अन्वेषण करेंगे, तब इसका मूल कारण परिग्रह ही पावेंगे । परिग्रह क्या है !
1
1
इस पर विचार करने से ही उसका स्वरूप समझ में आजावेगा । मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ही परिग्रह हैं। इनमें भी मिथ्यादर्शन ही मूल है । इसके सद्भाव में ही मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अन्तर्भूत होते हैं । मिथ्यादर्शन के चले जाने पर ज्ञान में मिथ्यात्व और चारित्र में मिथ्यात्व व्यवहार नहीं रहता है । ज्ञान में सम्यक् और चारित्र में संयम व्यवहार होने लगता है । तच चारित्र के विकार जो क्रोधादिरूप परिणमते हैं - परिणमो, जैसा मिथ्यात्व के साथ उनका बल था वह नहीं रहता ।
जब तक श्वान (कुत्ता) स्वामी के साथ रहता है, वह सिंह के सदृश पौरुष दिखलाने की चेष्टा करता है । परन्तु स्वामी का समागम छूट जाने पर वह तब एक यष्टिप्रहार से भाग जाता है ।
अतः क्रोध, मान, माया, लोभ इनको जब तक मिथ्यादर्शन का समागम रहता है, तब तक इनकी शक्ति पूर्ण रहती है। इसके अभाव में यह बात नहीं रहती । अतः आवश्यक हैं कि हम इस शत्रु से पहले अपनी आत्मा को पृथक् करें ।
यह मिथ्यात्व परिग्रह दूर हो सकता है; क्यों कि औदयिक भाव है । स्वामीने इसका लक्षण यों लिखा है:
---
" यस्य सद्भावे आत्मा निजस्वरूपात्पराङ्मुखो जायते तदेव मिथ्यादर्शनं । " 1 इसका निरूपण करना अति कठिन है । यह तो अपने कार्य से जाना जाता है । पदार्थों में अनन्त ( ३६ )