________________
संस्कृति
अपरिग्रह ।
२७१
जन्य ज्ञान को कथञ्चित् मूर्तिक कहा । परमार्थ से ज्ञान मूर्त्तिक नहीं । उसी तरह आत्मा व्यवहार से परपदार्थों के साथ सम्बन्ध होने से अनन्त संसार का पात्र होता हुआ ८४ लक्ष योनियों में परिभ्रमण कर रहा है । जिस योनि में जाता है उसी में अहम्बुद्धि मान लेता है । और पदार्थ अपनी मान्यता के अनुकूल हुए तो उनमें राग और जो प्रतिकूल हुये उन में द्वेष कल्पना कर मोह - राग-द्वेष के द्वारा इसी संसारचक्र में भ्रमण करता रहता है । वास्तव में देखें तो आज तक हम इस भूल में ऐसे उलझे हैं कि जो स्वयं जान कर भी नहीं संभलते । अहम्बुद्धि कभी पर में नहीं होती ।
मैं सुखी, दुःखी, रंक, राव हूं । क्या इसमें आप का परिचय नहीं है ! परन्तु फिर भी कोई प्रयत्न कर के इनको पृथक् करने का नहीं । मोह-मदिरा से उन्मत्त इसी चक्र में आत्मा फंस गया है। कोई उपाय दृष्टिपात नहीं होता । नशा उतरने पर यदि फिर से मदिरापान न करें। तब आराम पा सकता है । परन्तु फिर उसी संस्कार के द्वारा वही मदिरापान करता है और फिर उसी चक्र में आ जाता है। संसार को सुधारने का उपाय - प्रयत्न करता है । आप सुधरे इस पर दृष्टि नहीं । अनादिकाल से परपदार्थों को ही सुख का कारण मान कर संचय करने का सतत प्रयत्न करता है ।
संचय करने का लक्ष्य केवल अन्तरङ्ग की अभिलाषा है । यद्यपि उन पदार्थों में कोई भी प्रयोजन निज का नहीं । केवल हम संसार में उच्चतम मनुष्यों की गणना में मुख्यतम माने जावें - ऐसा मानना कुछ सुखकर नहीं । कल्पना करो प्रथम तो ऐसा होना असंभव ही । अथवा हो भी जावे तो भी इससे सुख होने का क्या सम्बन्ध है ! सुख तो निरभिलाषा में है । अभिलाषा निरन्तर परपदार्थों की होती है जो हमारे नहीं । जो हमारे नहीं उन्हे अपनाने की कल्पना ही अनंत संसार का जनक है। जिन को जितनी विशेष आकांक्षा होगी वे उतने ही दुःखी होंगे ।
लोक में जितना अधिक धन जिसके होगा, वह उतना ही दुःखी होगा। संसार में मध्यलोक में सर्व से अधिक परिग्रही चक्री होता है; परन्तु निरन्तर वह यही चाहता है। कि कब इस आपत्ति से पृथक् हो जाऊं । यदि वह परिग्रह सुखकर होता तो उससे विरक्त होने का भाव न करता । भाव ही नहीं, विरक्त हो जाता है और फल उसका जो है उसे प्राप्त करता है । यह तो अन्य की कथा है
1
मनुष्य को उचित है कि वह अपनी परिस्थिति के अनुकूल पदार्थों का संचय करे तो लाभ है, सो नहीं । हमारे मन में यह विचार लिखते-लिखते आयाः
जो तुम जगत् के मनुष्यों के संचय की कथा लिख रहे हो इस से तुमको क्या लाभ १