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संस्कृति
अपरिग्रह |
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आता; ऐसी संसारी मनुष्य की दशा है। जहां परपदार्थ अपनी इच्छा के अनुकूल हुवाफूल गये; यद्यपि उस परपदार्थ का परिणमन उसीके आधीन है। परन्तु इसको मानने में ऐसी मिथ्या कल्पना जो है । उसे अपने अनुकूल मान फूला नहीं समाता । ( इति हास्यपरिग्रह ) रतिपरिग्रह
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रति में भी यही बात है । जो पदार्थ अपने को चाहियें, वे चेतन हों चाहे अचेतन हों, सुहा गये । और उन में रति हो गई । उन पदार्थों का परिणमन अपने आधीन नहीं । परन्तु हमारी मिथ्या मान्यताने इस प्रकार हमारी परिणति को अपने वश कर रक्खा है कि हमारी दशा मदिरा पान करनेवालों से एक अंश अधिक ही है। कितना ही कोई कहे कुछ समझ में नहीं आता । ( इति रतिपरिग्रह )
अरतिपरिग्रह
यदि जो पदार्थ अनुकूल थे वे प्रतिकूल हो जावें, तब अरति कषाय के उत्पन्न होने का अवसर आने में बिलम्ब नहीं । केवल अपनी इच्छा के अनुकूल उस पदार्थ की परिणति हमारे ज्ञान में आजानी चाहिये । चाहे उस में वह परिणति हो या न हो ।
जैसे जब कोई मनुष्य अपनी पत्नी के भाई आदि से मिलता है और परस्पर अनेक प्रकार के अशिष्ट शब्दों का प्रयोग करके प्रसन्न होता है । वहाँ यह सिद्ध होता है कि हमारे ज्ञान में अनुकूलता चाहिये। विषयों में चाहे जो परिणमन हों। जो हमको रुच गया उसमें हमारी रति होजाती है । प्याज, लहसुन के खानेवाले लहसुन और प्याज की गन्ध को जानकर प्रसन्न होते हैं और हम दूर से ही पलायमान होते हैं । प्याज खानेवालों को आनन्द आता है और हमें उसमें अरविभाव । अन्यत्र भी इसी प्रकार अरतिभाव जानना । ( इति अरतिपरिग्रह ) शोकपरिग्रह
जब हमसे इष्ट पदार्थ का वियोग होता है, उस समय हम शोक में मग्न हो जाते हैं । शोकदशा का अनुभव वही जानता है जिसको शोकानुभव हो रहा है। जब अनिष्ट पदार्थ का संयोग होता है, तब भी वही दशा होती है जो इष्टके वियोग में होती है । इस प्रकार शोकपरिग्रह जानना । ( इति शोकपरिग्रह )
भयपरिग्रह
इसी तरह भय भी एक परिग्रह पिशाच है । यह भी तब होता है, जब हमारे घातक पदार्थ उपस्थित होते हैं । क्योंकि हमने जिन पदार्थों को अपना मान रखा हैं, वे हमारे हैं
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