________________
२५६
श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय दर्शन और जीवनोत्कर्ष करनेवाली प्रेरणा प्राप्त हो-इस संमिलित आदर्श का जैन कलाकारों द्वारा ठीकठीक रीति से पालन किया गया है। समाज का युग-कर्तव्य
___ आज का युग मशीन प्रधान है। तार, टेलीफोन, मोटर, जहाज, रेलगाड़ी तथा रेडियो के विपुल साधनों से एवं अणुबम, उद्जनबम की शक्ति से आज संसार की शकल ही पलट गई है एवं दिन प्रतिदिन विशेष-विशेष अन्तर पड़ता जा रहा है । दैनिक जीवनव्यवहार की वस्तुओं का उत्पादन विशाल पैमाने पर उपरोक्त शक्तियों के आधार से तैयार किया जा रहा है । विश्व को भौतिक साधनों से परिपूर्ण और एक सामान्य द्वीप के रूप में परिणित किये जाने का भारी प्रयत्न किया जा रहा है । इसका परिणाम यह आया है कि प्राचीन विचार-धाराओं का, प्राचीन विश्वासों का और प्राचीन संस्कृति का वर्तमान-युग की परिस्थिति से और विचारों से सर्वथा ही संबंध कट गया हो ऐसा प्रतीत हो रहा है । जो विचार और जो विश्वास आज दिन तक आधार-भूत और सम्माननीय गिने जाते थे वे सब अब शंका के घेरे में, तर्क की जाम में और अंध-विश्वास के रूप में मालूम पड़ने लगे हैं। ऐसे असाधारण समय में जैन-धर्म की रक्षा' का महान् प्रश्न उपस्थित हो गया है। इसे कोरी कल्पना अथवा भ्रम-मात्र ही नहीं समझें; यह वास्तविक वस्तुस्थिति है। भारतमें सामाजिक और आर्थिक क्रांति सन्निकट हैं और तदनुसार धनवानों का धन क्रमशः गवर्नमेंट के खजानों में निश्चित रूप से आगामी पच्चीस वर्षों में अवश्यमेव चला जानेवाला है। ऐसी ध्रुवस्थिति में जैनधर्म के प्रचार, प्रसार और साहित्य के प्रकाशनार्थ भारी रकम का फण्ड इकट्ठा किया जाना परम आवश्यक है।
आज हमारी समाज में एक सौ से ऊपर करोड़पति और हजारों लखपति हैं। आज समाज का नेतृत्व इन्हीं के हाथों में है । और इस प्रकार समाज का भविष्य सत्ता और पूंजी के मध्य अधर झूल रहा है । इन धनवालों का नैतिक कर्तव्य है कि ये सज्जन आज के युग में जैन-धर्म, जैन-दर्शन, जैन-साहित्य और जैन संस्कृति के प्रचार के लिये, विकास के लिये और कल्याण के लिये साहित्य के प्रकाशन की व्यवस्था विपुलमात्रा में करें। यही युग-पुकार और युग-कर्तव्य है।
आनेवाला युग साहित्य का प्रचार और साहित्य का प्रकाशन ही चाहेगा और इसी कार्य द्वारा ही जैन-समाज और जैन-धर्म टिक सकेगा ।
क्या कोई बतला सकता है कि आनेवाले नवीन समाजवादी अर्थ व्यवस्थावाले, यांत्रिक