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संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तस्वशान की गंभीरता। २४९ निर्वासित हो गया और लंका, बर्मा, चीन, जापान एवं तिब्बत आदि देशों में जाकर विशेष रूप से पल्लवित हुआ; जबकि जैन-दर्शन प्रबलतम साहित्यिक बाधाओं और प्रचंड तार्किक आक्रमणों के सामने भी टिका रहा । इसका कारण केवल ' स्याद्वाद' सिद्धान्त ही है । इसी का आश्रय ले कर जैन विद्वानोंने प्रत्येक सैद्धान्तिक-विवेचना में इसको मूल आधार बनाया ।
___ स्याद्वाद सिद्धान्त जैन तत्त्वज्ञानरूप आत्मा का प्रखर प्रतिभासंपन्न मस्तिष्क है, जिस की प्रगति पर यह जैन-दर्शन जीवित है और जिसके अभाव में यह जैन-दर्शन समाप्त हो जाता है।
मध्य-युग में भारतीय क्षितिज पर होनेवाले राजनैतिक तूफानों में और विभिन्न धर्मों द्वारा प्रेरित साहित्यिक और वाद-विवादात्मक शास्त्रार्थ आँधियों में भी जैनदर्शन का हिमा. लय के समान अडोल और अचल बने रहना केवल स्याद्वाद सिद्धान्त का ही प्रताप है। जिन जैनेतर दार्शनिकोंने इसे संशयवाद अथवा अनिश्चयवाद कहा है; निश्चय ही उन्होंने इसका गम्भीर अध्ययन किये बिना ही ऐसा लिख दिया है। आश्चर्य तो इस बात का है कि प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सभी दार्शनिकोंने एवं महामति मीमांसकाचार्य कुमारिल भट्ट आदि भारतीय धुरंधर विद्वानोंने इस सिद्धान्त का शब्द रूप से खण्डन करते हुए भी प्रकारान्तर से और भावान्तर से अपने-अपने दार्शनिक सिद्धान्तों में विरोधों के उत्पन्न होने पर विरोधात्मक विवेचनरूप विविधताओं का समन्वय करने के लिये इसी सिद्धान्त का आश्रय लिया है।
दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीरस्वामीने इस सिद्धान्त को ‘सिया अस्थि, सिया नत्थि, सिया अवक्तवं' के रूप में फरमाया है। जिस का यह तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु-तत्त्व किसी अपेक्षा से वर्तमानरूप होता है और किसी दूसरी अपेक्षा से वही नाशरूप भी हो जाता है। इसी प्रकार से तीसरी अपेक्षा विशेष से वही तत्त्व त्रिकाल सत्तारूप होता हुआ भी शब्दों द्वारा अवाच्य अथवा अकथनीय रूपवाला भी हो सकता है ।
जैन तीर्थङ्कर कहे जानेवाले पूज्य भगवान् अरिहंतोंने इसी सिद्धान्त को ' उप्पन्ने वा, विगमेइ वा, धुवेइवा '-इन तीन शब्दों द्वारा 'त्रिपदी' के रूप में संग्रन्थित कर दिया है। इस त्रिपदी का जैन-आगमों में इतना अधिक महत्त्व और सर्वोच्चशीलता बतलाई है कि जिनके श्रवण-मात्र से ही गणधरों को चोदह पूर्वो का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है। द्वादशाङ्गीरूप वीतराग-वाणी का यह हृदय-स्थान कहा जाता है।
भारतीय साहित्य के सूत्ररूप रचना-युग में निर्मित और जैन-संस्कृत-साहित्य में सर्वप्रथम रचित होने से महान् तात्त्विक आदि ग्रन्थ ' तत्त्वार्थ-सूत्र ' में इसी सिद्धान्त का