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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और किया है और आज भी अनेक विद्वान् इसको बिना समझे ही कुछ का कुछ लिख दिया करते हैं।
__' स्यात् रूपवान् वस्त्र है ' अर्थात् अमुक अपेक्षा से कपड़ा रूपवाला है । इस कथन में केवल कपड़े के रूप से ही तात्पर्य है; और उसी कपड़े में रहे हुए गंध, रस, स्पर्श आदि गुण-धर्मों से अभी कोई तात्पर्य नहीं है । इस का यह अर्थ नहीं है कि — कपड़ा रूपवाला ही है और अन्य गुण-धर्मों का निषेध है । ' अत एव इस कयन में यह रहस्य है कि रूप की प्रधानता है और अन्य शेष की गौणता है-नकि निषेवता है । इस प्रकार अनेक विधि से वस्तु को क्रमसे और मुख्यता-गौणता की शैली से बतलाने वाला वाक्य ही स्याद्वाद सिद्धान्त का अंश है । ' स्यात् ' शब्द नियामक है; जो कि कथित गुण-धर्म को वर्तमान काल में मुख्यता प्रदान करता हुआ उसी पदार्थ में रहे हुए शेष गुण-धर्मों के अस्तित्व की भी रक्षा करता है । इस प्रकार ' स्यात् ' शब्द वर्णन किये जाने वाले गुण-धर्म की मर्यादा की रक्षा करता हुआ शेष धर्मों के अस्तित्व को भी स्वीकार करता हुआ परोक्ष रूपसे उनका भी प्रतिनिधित्व करता है । जिस शब्द द्वारा पदार्थ को वर्तमान में प्रमुखता मिली है वही शब्द अकेला ही सारे पदार्थत्व को घेर कर नहीं बैठ जाय; बल्कि अन्य सहचारी धर्मों की भी रक्षा हो-यह कार्य ' स्यात् ' शब्द करता है।
'स्यात् वस्त्र नित्य ' है-यहां पर कपड़ा रूप पुद्गल द्रव्य की सत्ता के दृष्टिकोण से नित्यत्व का कथन है और पर्यायों की गणना की दृष्टि से अनित्यता की गौणता है। इस प्रकार त्रिकाल सत्य को शब्दों द्वारा प्रकट करने की एक मात्र शैली स्याद्वाद ही हो सकती है। प्रतिदिन के दार्शनिक झगड़ों को देखता हुआ सामान्य व्यक्ति न तो धर्म के रहस्य को ही समझ सकता है और न आत्मा एवं ईश्वर-संबंधी गहन तत्त्व का ही अनुभव कर सकता है । उल्टा विभ्रम में फंस कर कषाय का शिकार बनजाता है । इस दृष्टि कोण से अने. कान्तवाद मानव-साहित्य में बे जोड़ विचार-धारा है। इस विचार-धारा के बल पर ही जैनधर्म विश्व के धर्मों में सर्वाधिक शांति-प्रस्थापक और सत्य के प्रदर्शक का पद प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार अनेकान्तवाद ही सत्य को स्पष्ट कर सकता है। क्यों कि सत्य एक सापेक्ष तत्त्व है। सापेक्षिक सत्य द्वारा ही असत्य का अंश निकाला जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुंचा जा सकता है । इसी रीति से मानव के लिये ज्ञान-कोष की श्री वृद्धि हो सकती है जो कि सभी विज्ञानों की अभिवृद्धि करती है । अद्वैतवाद के समर्थ और महान् आचार्य श्री शंकराचार्य और अन्य विद्वानों द्वारा समय-समय पर किये जाने वाले प्रचंड प्रचार और प्रखर शास्त्रार्थ के कारण से ही बौद्ध-दर्शन सरीखा महान् प्रबल दर्शन तो भारत से