________________
संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तत्त्वज्ञान की गंभीरता। २४१ दिया गया है। शास्त्रार्थ में तात्कालिक और तथाकथित पराजय हो जाने पर अनेक विद्वानों को विविध रीतिसे मृत्यु-दंड भी दिया गया है। इस प्रकार भारतीय दर्शनशास्त्रों का यह एक प्रमुखतम और सर्वोच्च विचारणीय विषय रहा है ।
जैनदर्शन ईश्वरत्व को स्वीकार करता हुआ उसको केवल एक आदर्श और उत्कृष्टतम ध्येय मानता है। जैनतत्त्वज्ञान ईश्वर को विश्व का बनानेवाला याने स्रष्टा और नियामक एवं पालक नहीं मानता है। ईश्वरत्व अनुभोग्य एवं एक लक्ष्यरूप है । ईश्वरत्व प्रत्येक आत्मा का उत्कृष्टतम विकास मात्र है; और इसके सिवाय कुछ नहीं । इन उक्त पंक्तियों की अति सामान्य और अति स्थूल व्याख्या निम्न प्रकार है:___जैनदर्शन की मान्यता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड याने अखिल लोक में केवल दो तत्त्व ही हैं। एक तो जरूप अचेतनात्मक पुद्गल और दूसरा चेतनाशील आत्मतत्व । इन दो तत्त्वों के आधार से ही संपूर्ण विश्व का निर्माण हुआ है । संपूर्ण ज्ञात और अज्ञात विश्व के हर क्षेत्र में, हर स्थान में और हर अंश में, यहाँ तक कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग में ये दोनों ही तत्व परस्पर में दूध-पानी की तरह संमिश्रित रूप से भरे पड़े हैं। कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ कि ये दोनों तत्त्व घुले-मिले न हों । फिर भी इनका अपना-अपना अस्तित्व सत्ता की दृष्टि से स्वतंत्र और पृथक्-पृथक् है । इनकी अनेक अवस्थाएं हैं। इनके अनेक रूपान्तर
और पर्यायें हैं। विविध प्रकार की इनकी स्थिति है । इस पकार संपूर्ण विश्व के आधार का ढाँचा मूलतः इन दोनों तत्त्वों के आधार पर ही बना हुआ है। इन दो के अतिरिक्त तीसरा और कोई नहीं है।
जड़-पुद्गल अनेक शक्तियों में बिखरा हुआ है। इस की संपूर्ण शक्तियों का पता लगाना मानव-शक्ति और वैज्ञानिकों के भी बहिर की बात है । रेडियो, वायलेंस, तार, टेलीविजन, रेडार, बाष्प-शक्ति, विद्युत-शक्ति, अणुबम, कीटाणुबम, हाईड्रोजनबम, इथर तत्व, कास्मिक-किरणें, युरेनियम, थोरेनियम, तारा-नक्षत्रों की बनावट का मूल आधार और दृश्यमान् जगत् के सभी पदार्थ आदि विभिन्न रीति से दिखलाई पड़नेवाले शक्ति के साधन केवल इस जड़ तत्त्व के ही रूपान्तर मात्र हैं। इस प्रकार की अनंतानंत शक्तियाँ इस जड़ तत्व में निहित हैं जो कि स्वाभाविक, प्राकृतिक और कालातीत हैं। इससे विपरीत चेतन तत्त्व है । यह भी संपूर्ण संसार के हर क्षेत्र, हर स्थान और हर अंश में अनंतानंत रूप से सघन लोहे के परमाणुओं के समान पिंडीभूत है। जैसे समुद्र के तल से लगा कर सतह तक जल ही जल भरा रहता है और तल-सतह के बीच में कोई भी स्थान जल से खाली नहीं