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संस्कृति विश्व के विचार-प्रांगण में जैन तत्त्वज्ञान की गंभीरता। २३९ तत्त्व को विश्व के गण्य-मान्य विद्वानोंने सर्वसम्मत सिद्धान्त मान लिया है । विध के अन्य धर्म अहिंसा की इतनी सूक्ष्म, गंभीर और व्यवहारयोग्य योजना प्रस्तुत नहीं करते हैं-जैसी कि जैनधर्म प्रस्तुत करता है।
जैनधर्मने अपने कठिन तप-प्रधान आचारबल के आधार पर और अकाट्यतर्कसंयुक्त ज्ञानवल के आधार पर संपूर्ण हिन्दू धर्म बनाम वैदिक धर्म पर और महान् व्यक्तित्वशील बौद्धधर्म पर ऐसी ऐतिहासिक अमिट छाप डाली कि सदैव के लिये · अहिंसा ही धर्म की जननी है ' यह सर्वोतम और स्थायी सिद्धान्त " धार्मिक क्षेत्रों" में स्वीकार कर लिया गया। जैनधर्म की इस अमूल्य और सर्वोत्कृष्ट देन के कारण ही ईसाई, मुस्लिम आदि इतर धर्मों में भी अहिंसा की प्रकाशयुक्त कुछ किरणें प्रविष्ट हो सकी हैं।
जैन-संस्कृति सदैव अहिंसावादिनी, सूक्ष्म प्राणियों की भी रक्षा करनेवाली और मानव जीवन के विविध क्षेत्रों में भी अहिंसा का सर्वाधिक प्रयोग करनेवाली रही है । इस दृष्टिकोण से जैनतत्त्वज्ञानने जीव-विज्ञान का अति सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययनयोग्य विवेचन किया है जो कि विश्व साहित्य का सुन्दर, रोचक तथा ज्ञानवर्धक अध्याय है।
इस प्रकार निष्कर्ष यह है कि जैनधर्म की अहिंसासंबंधी देन की तुलना विश्वसाहित्य में और विश्वसंस्कृति में इतर सभी धर्मों की देनों के साथ नहीं की जा सकती है। क्योंकि अहिंसासंबंधी यह देन बेजोड़ है, असाधारण है और मौलिक है। यह उच्च मानवता एवं सरस सात्विकता को लानेवाली है। यह देन मानव को पशुता से उठा कर देवस्व की ओर प्रगति कराती है; अतः मानव इतिहास में यह अनुपम और सर्वोत्कृष्ट देन है । ___ आज के युग के महापुरुष, विश्वविभूति राष्ट्रपिता पूज्य गांधीजी के व्यक्तित्व के पीछे भी इसी जैनसंस्कृति से उद्भूत अहिंसा की शक्ति छिपी हुई थी-इसे कौन नहीं जानता है ! जैनधर्म में मानव की समानता
__ अहिंसा के महान् व्रत और असाधारण सिद्धान्त का मानव-जीवन के लिये व्यावहारिक तथा क्रियात्मक रूप देने के लिये दैनिक क्रियाओं संबंधी और जीवनसंबंधी अनेकानेक नियमों तथा विधि-विधानों का भी जैनधर्मने संस्थापन और समर्थन किया है। तदनुसार जैन-सिद्धान्तों में वर्ण-व्यवस्था को कोई स्थान नहीं है । जैनधर्म वर्ण-व्यवस्या को हेय दृष्टि से देखता है; क्यों कि मानव-मानव में भेद करना स्पष्टतः हिंसा करना है। जैन-संविधान में मानवमात्र समान है और मानवता का संविकास करना ही जैनधर्म का मूलभूत लक्ष्य है । अतः वर्ण-व्यवस्था का तिरस्कार करता हुआ जैन तत्त्वज्ञान आदेश देता है कि जन्म की दृष्टि से न तो कोई उच्च है और न कोई नीच; किन्तु अपने-अपने अच्छे अथवा बुरे