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कर्मबंधन और मोक्ष पं० मिश्रीलाल बोहरा जैन " न्यायतीर्थ, ” इन्दौर आत्मा मिथ्यात्वादि कारणों द्वारा अपने साथ जो कर्मवर्गणा के पुद्गल बांधता है वही कर्म है । अथवा अंजनचूर्ण परिपूर्ण से डिबिया के तुल्य निरंतर पुद्गल परमाणुओं से भरे हुए इस लोक में क्षीर-नीर न्याय से अथवा लोहाग्नि न्याय से कर्म पुद्गल की वर्गणा को आत्मा अपने साथ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योगादि अभ्यंतर एवं बाह्य हेतुओं का संबद्ध करता है वही कर्म है । कर्म रूपी है-अरूपी नहीं, क्योंकि कर्मबंधन से आत्मा को उपघात होता है या अनुग्रह भी होता है । यदि कोई शंका करे कि अरूपी आत्मा को उपघात अथवा अनुग्रह कैसे हो सकता है ! समाधान में शास्त्रकार कहते हैं कि बुधजन को मद्यपान से मतिसंभ्रम का उपघात और ब्राह्मी सेवन से मति का अनुग्रह होता है । यद्यपि यह आत्मा शुभाशुभ कर्म समय-समय पर बांधता है व छोड़ता भी है; परन्तु प्रवाह से कर्मबंध आत्मा को अनादि से है । अन्यथा कर्मबंधन से पूर्व आत्मा निर्लेप था और फिर कर्मबंध हुआ-इससे तो फिर सिद्ध परमात्मा को भी कर्मबंधन होना चाहिये; अत एव कर्मबंधन ' अनादिकं तत् प्रवाहेण' इस वचन से कर्मबंध अनादि है । यहां पर कोई यह कहे कि अनादि संयोग का वियोग कैसे हो सकता है ! उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि ' काश्चनोपलवत् ' न्याय से यह आत्मा कमों से भवस्थिति परिपक्व होने पर विमुक्त हो जाता है । जैसे सुवर्ण और उपल (मिट्टी) का संयोग अनादि है; पर तथाविध सामग्री से उनका वियोग हो जाता है । श्री सिद्धसेनदिवाकर महाराजने कल्याणमंदिर में कहा भी है कि
" ध्यानाजिनेश भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥"
प्रत्येक आत्मा रागद्वेषादि विभाव कारणों से अनादिकाल से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व योग सेवन करके अष्ट कर्मों का संचय करता है । जैसे स्निग्ध ( चिकटे) वस्त्र को रज जलदी ही चिपकती है, वैसे ही रागद्वेष रूपी चिकनाई के कारण इस आत्मा को कर्मरज लग जाती है । क्षीर-नीर की तरह आत्मा के साथ कर्म मिल जाते हैं और जब तक वीतराग देव के परम हितकारी वचनानुसार तप-संयम का सेवन करने में आता नहीं, वहाँ तक यह आत्मा स्वकीय स्वाभाविक गुणों के आस्वादन से पूर्ण वंचित रह कर विभावदशा में रागद्वेष