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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। जो कोई इन विषमताओं का कारण है वही कर्म हैकर्मसिद्धान्त यही कहता है।
जैनों के कर्मवाद में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है-उसका अस्तित्व ही नहीं है । उसे जगत की विषमताओं का कारण मानना एक तर्कहीन कल्पना है । उसका अस्तित्व स्वीकार करनेवाले दार्शनिक भी कर्मों की सत्ता अवश्य स्वीकार करते हैं। 'ईश्वर जगत के प्राणियों को उनके कमों के अनुसार फल देता है। उनकी इस कल्पना में कर्मों की प्रधानता स्पष्टरूप से स्वीकृत है। 'सब को जीवन की सुविधाएं समान रूप से प्राप्त हों और सामाजिक दृष्टि से कोई नीच-ऊंच नहीं माना जाए '-मानव मात्र में यह व्यवस्था प्रचलित हो जाने पर भी मनुष्य की व्यक्तिगत विषमता कभी कम नहीं होगी। यह कभी संभव नहीं है कि सब मनुष्य एक से बुद्धिमान हों, एकसा उनका शरीर हो, उनके शारीरिक अवयवों और सामर्थ्य में कोई भेद न हों। कोई स्त्री, कोई पुरुष और कोई नंपुसक होना दुनियां के किसी क्षेत्र में कभी बन्द नहीं होगा। इन प्राकृतिक विषमताओं को न कोई शासन बदल सकता है और न कोई समाज । यह सब विविधताएं तो साम्यवाद की चरम सीमा पर पहुंचे हुए देशों में भी बनी रहेंगी । इन सब विषमताओं का कारण प्रत्येक आत्मा के साथ रहनेवाला कोई विजातीय पदार्थ है और वह पदार्थ कर्म है । कर्म आत्मा के साथ कब से हैं और कैसे उत्पन्न होते हैं ? ___आत्मा और कर्म का संबंध अनादि है । जब से आत्मा है, तबसे ही उसके साथ कर्म लगे हुए हैं। प्रत्येक समय पुराने कर्म अपना फल दे कर आत्मा से अलग होते रहते हैं और आत्मा के रागद्वेषादि भावों के द्वारा नये कर्म बंधते रहते हैं। यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक आत्मा की मुक्ति नहीं होती। जैसे अन्तिम बीज जल जाने पर बीजवृक्ष की परम्परा समाप्त हो जाती है, वैसे ही रागद्वेषादिक विकृत भावों के नष्ट हो जाने पर कमों की परम्परा आगे नहीं चलती। कर्म अनादि होने पर भी सान्त हैं। यह व्याप्ति नहीं है कि जो अनादि हो उसे अनन्त भी होना चाहिए-नहीं तो बीज और वृक्ष की परम्परा कभी समाप्त नहीं होगी।
___यह पहले कहा है कि प्रतिक्षण आत्मा में नये २ कर्म आते रहते हैं । कर्मवद्ध आत्मा अपने मन, वचन और काया की क्रिया से ज्ञानावरणादि ८ कर्मरूप और औदारिकादि १ शरीररूप होने योग्य पुद्गलस्कन्धों का ग्रहण करता रहता है। आत्मा में कषाय हो तो यह पुद्गलस्कन्ध कर्मवद्ध आत्मा के चिपट जाते हैं-ठहरे रहते हैं। कषाय (रागद्वेष) की