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उत्सर्ग और अपवाद ।
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व्यवहार भाष्य में इसका सुन्दर समाधान दिया गया है। आचार्य कहते हैं । — भिक्षु को असमाधि भाव हो जाने पर और उसके भक्त पान मांगने पर उसे भक्त पान अवश्य दे देना चाहिये; क्योंकि उसकी प्राणों की रक्षा के लिये आहार कवच है । "
शिष्य पूछता है कि त्याग कर देने पर भी भक्त पान क्यों देना चाहिये ! आचार्य कहते हैं:
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भिक्षु की साधना का लक्ष्य है कि वह परीषह की सेना को मनःशक्ति से, शक्ति से और कायबल से जीते । " परीषह सेना के साथ युद्ध वह तभी कर सकता है, जब कि समाधिभाव में रहे । विना भक्त पान के उसे समाधि भाव नहीं रह सकता; अतः उसे कवचभूत आहार देना चाहिये !
शिष्य प्रश्न करता है - " भंते ! संथारा करनेवाला भिक्षु भक्त पान मांगे। उसे न दे और उसकी निन्दा करे तो क्या होता है ! " आचार्य कहते हैं-" जो उसकी निन्दा करता है, जो उसकी भर्त्सना करता है, उसको चार मास का गुरु प्रायश्चित आता है । "
भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है कि वह अपने चतुर्थ महाव्रत की रक्षा के लिये नवजात कन्या का भी स्पर्श नहीं करता । परन्तु अपवाद रूप में वह नदी आदि में प्रवाहित होने वाली भिक्षुणी का हाथ पकड़ कर उसे निकाल भी सकता है। यह भिक्षु का अपवाद मार्ग है ।
कथित उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि साधक जीवन में जितना महत्व उत्सर्ग का है अपवाद का भी उतना ही महत्व हैं। उत्सर्ग और अपवाद में से किसी का भी परित्याग नहीं किया जा सकता। दोनों धर्म हैं, दोनों ग्राह्य हैं। दोनों के सुमेल से जीवन स्थिर बनता है । एक समर्थ आचार्य के शब्दों में कहा जा सकता है कि “ * जिस देश और काल में एक वस्तु अधर्म है, तदभिन्न देश और काल में वह धर्म भी हो सकती है । "
१ अराने पानके च याचिते तस्य भक्तपानात्मकः कवचभूत आहारो दातव्यः ।
व्य. भा. उद्देश १०, गा. ५३३, टीका
२ हंदि परीसहचमू जोहेषव्वा मणेण कारण ।
तो मर देसकाले कवयभूओ उ अहारो ॥ ५३४ ॥
परीषहसेना मनसा, कायेन, ( वाचा च) योधेन जेतव्या । तस्याः पराजयनिमित्तं मरणदेशकाले ( मरणसमये ) योधस्य कवचभूत आहारो दीयते । - व्य. भा. उद्देश १०,
३ यस्तु तं भक्तपरिज्ञाव्याघातवन्तं खिंसयति, ( भक्तप्रत्याख्यान प्रतिभग्न एष इति ) तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो व्य. भा. उद्देश १०, गा. ५५१ मासा अनुद्घाता गुरुकाः ।
४ यस्मिन् देशे काले, यो धर्मो भवति ।
स एव निमित्तान्तरेषु, अधर्मो भवत्येव ॥