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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
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दर्शन ' आदमी की इस शंका का जवाब है कि 'मैं क्या हूँ ! यह जगत क्या है ! इस जगत में मेरा क्या स्थान है ?' इत्यादि । इन शंकाओं के जवाब में जितने आदमियों के जितने उत्तर मिलेंगे वे तथ्य में एक होते हुए भी विस्तार में इतने भिन्न मिलेंगे कि हर कोई आदमी उनके एक होने पर विश्वास ही नहीं कर सकते ।
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वृक्ष के पीड़, गुद्धे, डाली, पत्ते, कली, फल, बीज सभी तो एक हैं। पर हरएक के लिये नहीं । वृक्ष की इन भिन्नताओं पर एक होने का किसी न किसी तरह विश्वास कराया जा सकता है, पर किसी गले यह बात उतारनी कितनी कठिन है कि पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, नर, नारी, नभ, पाताल सब एक हैं। मानना हो तो मानना । इस बात को कोई सुनकर भी नहीं देगा | आज दुनियां इस अनोखे तथ्य को सुन लेती है और सहन कर लेती है । इसका यही मतलब है कि वह इसको इतना ही असस्य समझती है, जितना कहानी में पशु-पक्षी तो क्या ईंट-पत्थर तक का बोलना ।
दर्शन की पहुंच बहुत गहरी होती है । पर दर्शन - सागर की गहराई को सामने रख कर उसे बहुत ही उथली कहना पड़ेगा । आदमी के मस्तक की डोलची सात सागर से पानी आखिर ले ही कितना सकती है ? जैसे गिलहरी का मुंह एक टेंट से भर जाता है, वैसे ही आदमी के मस्तक की डोलची एक लोटा ज्ञान-जल से भर जाती है ।
" गागर मैं सागर ' की कहावत प्रसिद्ध है । इसका कहीं यह मतलब न समझ बैठना. कि गागर में सागर समा गया । ' पिण्डे ब्रह्माण्ड ' का यह अर्थ न समझना कि पिण्ड में ब्रह्माण्ड समाया हुआ है । बस इसका इतना ही अर्थ समझना चाहिये कि जहां तक आदमी की पहुंच है उसके लिये गागर का जल और पिण्ड का ब्रह्माण्ड ही काफी हैं ।
असल में देखा जाय तो हर व्यक्ति दार्शनिक है; पर किसी एक के यह ही अकेला काम सुपुर्द करके उसको दार्शनिक कह कर पुजवा देना दूसरी बात है । पर यह कोई बूरी बात नही है । बूरी बात तो यह है कि उसको यह समझ बैठना कि उसने जो कुछ कहा है वह किसी और जगह है ही नहीं । जो कुछ उसने कहा है वह ही ठीक है, शेष सब गलत । वह ही प्रमाण है, दूसरा कोई नहीं । वह इतना कह गया है कि अब कुछ कहने के लिये ही नहीं रहा । इत्यादि ।
इन बातों के साथ-साथ यह बात तक भूला दी जाती है कि वह दार्शनिक भी हम जैसा आदमी रह चुका है। और उस दार्शनिक में भी आदमी का बालकपन इसी तरह से जीवित है, जैसे हम सब में । इस असलियत के भूला देने से समाज को बेहद नुकसान हुआ है।