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उत्सर्ग और अपवाद उपाध्याय, कविरत्न श्री अमरचन्द्रजी महाराज जैन धर्म की साधना मनोजय की साधना है । वीतरागभाषित पन्थ में साधना का लक्ष्य है-मनोगत विकारों को जीतना। मनोविजेता जगतो विजेता-यह जैनधर्म की साधना का मुख्य सूत्र है । जैनधर्म की साधना-विधिवाद के अतिरेक और निषेधवाद के अतिरेक का परित्याग करके दोनों कूलों के मध्य में होकर बहनेवाली सरिता के तुल्य है। सरिता के प्रवाह के लिये, सरिता के विकास के लिये, सरिता के जीवन के लिये दोनों कूल आवश्यक हैं । एक कूलवाली सरिता सरिता नहीं कही जा सकती। जीवन सरिता की भी यही दशा है । एक
ओर विधिवाद का अतिरेक है, दूसरी ओर निषेधवाद का अतिरेक है-दोनों के मध्य में होकर प्रवाहित होती है-जीवन सरिता । जीवन सरिता के प्रवाह को, जीवन सरिता के विकास को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये दोनों अतिरेकों का त्याग आवश्यक है । अति. विधिवाद और अतिनिषेधवाद से बचकर चलनेवाली जीवन सरिता ही अपने अनन्त लक्ष्य में विलीन हो सकती है।
साधना की सीमा में संप्रवेश पाते ही साधना के दो अंगों पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है-" उत्सर्ग तथा अपवाद ।” साधना के ये दोनों अंग प्राण हैं। इनमें से एक तर का भी अभाव हो जाने पर साधना अधूरी है, विकृत है, एकांगी है, एकान्त है। जीवन में एकान्त कभी कल्याणकर हो नहीं सकता; क्यों कि वीतराग देव-संक्षुण्ण पथ में एकान्त मिथ्या है, अहित है, अशुभंकर है। मनुष्य द्विपद है। वह अपनी यात्रा अपने दोनों पादों से ही भली भाँति कर सकता है। एक पद का मनुष्य लंगड़ा होता है। ठीक साधना भी अपने दो पदों से ही सम्यक् प्रकार से गति कर सकती है। उत्सर्ग और अपवाद-साधना के ये दो चरण हैं। इनमें से एकतर चरण का भी अभाव यह सूचित करेगा कि साधना पूरी नहीं, अधूरी है। साधना के जीवन विकास के लिये उत्सर्ग और अपवाद आवश्यक ही नहीं, अपितु अपरिहार्य भी हैं। साधक की साधना के महा पथ पर जीवन-रथ को गतिशील एवं विकासोन्मुख रखने के लिये उत्सर्ग और अपवाद रूप दोनों चक्र सशक्त तथा सक्रिय रहने चाहिये, तभी साधक अपनी साधना से अपने साध्य की सिद्धि कर पाता है। कुछेक विचारक जीवन में उत्सर्ग को ही पकड़ कर चलना चाहते हैं। वे अपनी सम्पूर्ण
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