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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
प्रमुखायत खड़ी कर दी। जैसे पंच से पंचायत, वैसे ही प्रमुखों की प्रमुखायत। याद रहे, जैनदर्शन में सरपंच को कोई स्थान नहीं। हां, तो अब जगत छ द्रव्यों का बना रह गया । आकाश, काल, धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल । इन छहों को दो भागों में भी बाँटा जा सकता हैजीव और अजीव ।
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जगत को आजकल के विज्ञानियों की तरह अधूरा नहीं छोड़ दिया। उसकी भी हद - बंधी कर दी । उसका आकार है डेढ़ डुमरु जैसा । अर्थात् एक डुमरु के ऊपर दूसरा डुमरु रख दिया जाय और ऊपरवाला डुमरु आधा काट डाला जाय तो दिखाई देनेवाले जगत् का आकार बन जायगा । इसको ज्यादा विस्तार से समझाने की जरूरत नहीं । क्यों कि यह लम्बा-चौड़ा विषय है और यहां जरूरी बातें कहना जरूरी है ।
ऊपर बताये हुए छ द्रव्यों में से आकाश और काल को सब जानते हैं। जीव व पुद्गल (जड़) से भी सब परिचित हैं । धर्माधर्म पारिभाषिक शब्द हैं । जैनदर्शनकारों का धर्मद्रव्य आजकल के विज्ञानियों के ईथर से कुछ-कुछ मेल खाता है और धर्मद्रव्य एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो सारे जगत् में फैली हुई है और जो जड़ चेतन के गमनागमन में सहायक होती है ।
अधर्मद्रव्य भी एक अदृश्य शक्ति है जो सारे जगत् में फैली हुई है और जड़चेतन के ठहरने में सहायक होती है । यह ध्यान रहे कि धर्मद्रव्य सड़क की तरह न किसी को चलाने की प्रेरणा करता है, न अधर्म द्रव्य सराय की तरह या धर्मशाला की तरह किसी को उसमें आ टिकने के लिये कहता है। जड़, चेतन अपने आप गतिमान होते और ठहरते हैं ।
ये छहों द्रव्य अनादि-अनन्त हैं । ये हैं जैनदर्शनकारों के दर्शन की मूल । इसी मूल पर जगत् का वृक्ष खड़ा है और सब काम अनादिकाल से चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा ।
इस सब का वर्णन विस्तार के साथ तो लेख में लिखा नहीं जा सकता । इसके लिये तो ग्रन्थ और प्रन्थों की ही आवश्यकता होगी। पर जिनकी दर्शन में पैठ है और जिनकी दर्शन में रुचि है, वे इस बानगी से कुछ न कुछ जरूर समझ लेंगे । और अगर उनमें जिज्ञासा जाग गई तो वे जैन ग्रन्थों से या किसी जानकार से विस्तारपूर्वक जान भी लेंगे । इत्यलम् ।