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संस्कृति
उत्सर्ग और अपवाद। " देश, काल और रोग के कारण साधक जीवन में भी कभी ऐसी अवस्था आ जाती है कि अकार्य कार्य बन जाता है तथा कार्य अकार्य हो जाता है । जो विधान है उसे निषेध कोटि में ले जाना पड़ता है और जो निषेध है उसे विधान बनाना पड़ता है।"
- यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य है कि उत्सर्ग और अपवाद-दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, साधक हैं; बाधक और घातक नहीं हैं । दोनों के सुमेल से साधक का मार्ग प्रशस्त होता है । एक ही रोग में जिस प्रकार वैद्य को किसी वस्तु को अपथ्य कह कर निषेध करना पड़ता है, देश और काल की परिस्थिति वशात् उसी रोग में उस निषिद्ध पथ्य का विधान भी करना पड़ता है । परिस्थितिवश जिस अपथ्य का निषेध किया था, फिर उसीका कभी परिस्थिति में विधान भी देखा जाता है; परन्तु इस विधि और निषेध दोनों का लक्ष्य एक ही है-रोग का उपशमन, रोग का उन्मूलन करना । उदाहरण के लिये आयुर्वेद में यह विधान है कि 'बर रोग में लंघन अर्थात् भोजन का परित्याग हितावह एवं स्वास्थ्य के अनुकूल रहता है; परन्तु श्रम, क्रोध, शोक और काम ज्वर होने पर लंघन से हानि ही होती है।' भोजन का त्याग एक स्थान पर अमृत है, हितकर है और दूसरे स्थान पर विष है, अहितकर है।
इसी प्रकार उत्सर्ग और अपवाद दोनों का एक ही लक्ष्य होता है-जीवन की संशुद्धि । उत्सर्ग अपवाद का पोषक होता है और अपवाद उत्सर्ग का सहायक । दोनों के सुमेल से चारित्र की संशुद्धि और पुष्टि होती है । उत्सर्ग मार्ग पर चलना यह जीवन की सामान्य पद्धति है और अपवाद मार्ग पर चलना यह जीवन की विशेष पद्धति है । ठीक वैसे ही जैसे कि राजमार्ग पर चलनेवाला यात्री कभी राजमार्ग का परित्याग करके समीप की पगदंडी भी पकड़ लेता है। परन्तु फिर वह उसी राजमार्ग पर आ जाता है। परिस्थितिवश उसे वैसा करना पड़ा था। यही बात उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के संबंध में लागू पड़ती है।
प्रश्न किया जा सकता है-कब उत्सर्ग पर चलें और कब अपवाद पर ! प्रश्न वस्तुतः बड़े ही महत्त्व का है। किन्तु इसका समाधान भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। साधक स्वयं ही अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार यह निर्णय कर सकता है कि कब उत्सर्ग को ग्रहण करें, कब अपवाद को ? अन्ततोगत्वा उत्सर्ग और अपवाद का निर्णय साधक स्वयं
-स्याद्वादमञ्जरी
१ उत्पद्यते हि सावस्था, देशकालामयान् प्रति ।। ___ यस्यामकार्य कार्य स्यात् , कर्म कार्य च वर्जयेत् ॥ २ कालाविरोधिनिर्दिष्टं, ज्वरादौ लङ्घनं हितम् ।
ऋतेऽनिलश्रमक्रोध, शोककामकृतज्वरात् ॥