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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
दर्शन और
जिस तरह पुराने बने हुए किले में आज की जरूरत के ख्याल से सैंकडों कमियां कही जा सकती हैं, पर उनको बनाने वालेकी भूल नहीं कहा जा सकता; वैसे ही पुराने दर्शन ग्रंथों में उनको आज की विज्ञान की कसौटी पर कसने पर कुछ कमियां मिल सकती हैं, पर उन्हें भूल नहीं कहा जा सकता । और फिर ये कमियां मूल सिद्धान्त में नहीं होंगी - विस्तृत व्याख्या में मिलेंगी । उदाहरण के तौर पर आदमी का देह ले लीजिये। जब तक अणु की यह परिभाषा मानी गई कि अणु पदार्थ का वह छोटे से छोटा हिस्सा है जिसके फिर टुकड़े नहीं हो सकते, तब तक मनुष्य देह में बहुत ही कम पोल थी। ऐसा मालूम होता था कि आदमी का देह ठोस ही ठोस है । आज भी मामूली आदमी लोहे के मनोटे को बहुत ठोस ही समझेगा, पर विज्ञानी उसे एकदम पोला कह रहे हैं। अब आदमी की पोल का कहीं ठिकाना है ! अब अगर आत्मा मनुष्य देह के ठोस भाग में ही रहता है तो मनुष्य को दबा कर कितना छोटा किया जा सकता है, इसका अनुमान भी पुराने पंडित नहीं लगा सकते । अब से सैंकडों वर्ष पहिले यह बात आसानी से कही जा सकती थी कि मुक्त आत्मा का आकार अपने चर्मशरीर से किंचित् ऊन होता है, और यह बात ठीक कही गई थी। उन दिनों कोई इसका खंडन नहीं कर सकता था । पर यह कोई सिद्धान्त की बात न थी । यह था पंडितों का विस्तार। इस विस्तार को धक्का लगने से आत्मा का कुछ बनता बिगड़ता नहीं । वह तो जैसा है वैसा बना रहेगा । अब मुक्त आत्मा का वह स्वरूप मान लिया जायगा जो आज की कसौटी पर ठीक उतरेगा । आज की कसौटी आदमी की देह में इतनी पोल बताती है कि उसको अगर दबा कर ठोस बनाया जाय तो वह राई के दाने जितनी भी नहीं रह जायगी । और तोल में उतनी ही होगी जितना वह आदमी होगा। यानि डेढ़-दो मन । लोहे के मनोटे का भी यही हाल होगा । अब आज के मुक्त आत्मा का आकार इतना छोटा रह जायगा कि उसे किसी तरह भी वेदी पर विराजमान करके दर्शकों को दिखाया न जा सकेगा। इस खोजने सिद्धान्त को धक्का नहीं पहुंचाया, सत्य का कुछ नहीं बिगाड़ा - सिद्धान्त और सत्य पर से भ्रम का एक आवरण हटा दिया | सिद्धान्त और सत्य अब भी निरावरण हुए हैं या नहीं यह पता नहीं ।
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जिसे जैनदर्शन कहा जाता है आज उसकी कोई बात ऐसी नहीं है जो सारी दुनियां में नं फैल गई हो। वह जैनों के लिये भले ही साल के कुछ दिन की चीज हो या दुनियां के विज्ञानियों में जैनदर्शन नाम से पुकारे जानेवाले सारे सिद्धान्त आये दिन की चीज बने हुए हैं। हीरे को अमुकचन्द तिजोरी में रख कर अलभ्य चीज कह सकते हैं और सेठानीजी और रानी हीरे के गहने को गले में डाल कर इठलाती हुई चल सकती हैं। सेठ उसको कण्ठे का बोझा बना सकते हैं। राजा उसे मुकुट में जड़ कर और मुकुट पहन कर अपने को बड़ा