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संस्कृति जैनदर्शन।
२१३ और जिस दशेन ने समाज को एक करने के लिये जन्म लिया था उसने उसको अनेक कर दीया । बहुत दिनों तक दर्शनों की गिनती छ यानि तीन के दुगुने छ थी, पर अब तो वह गिनती बढ़ रही है और इसी हिसाब से समाज में भेदभाव बढ़ता जा रहा है। - हम ऊपर कह आये हैं कि दर्शन, ' मैं क्या हूं' जैसे-सवालों का जवाब है । पर 'मैं क्या हूं' यह सवाल मामूली सवाल नहीं। शुरू के आदमी में इतनी ताकत ही न थी कि वह ऐसे सवाल उठा सके । ऐसे सवाल तो प्राणी की लाखों वर्ष की मेहनत का फल है। शुरू में तो आदमी लड़ना, मरना ही जानता था। डरता, डराता भी खूब था। अब दर्शन की उत्पत्ति भय से रह जाती है । 'दर्शन कमल ' डरकी कीचड़ से उगा है।
जिस तरह बड़े से बड़े आविष्कार के सिद्धान्त में मामूली सी बात रहती है, वैसे ही ऊँचे से ऊँचे विचार की तह में बहुत मामूली बात ही रहा करती है। मामूली बात में ही विचारक की महान् शक्ति छिपी दिखाई देती है । अणु की तुच्छता का कुछ ठिकाना है ! पर उसी तुच्छ में छिपी कितनी महान् शक्ति मिली !
किसी एक मामूली सी बात को लेकर एक नया दर्शन खड़ा किया जा सकता है। जैसे सत्य ही ईश्वर, ताप ही परम तत्व है, कुछ नहीं में ही सब कुछ समाया हुआ है, जो है वह मिट नहीं सकता, जो नहीं है वह पैदा नहीं हो सकता, जन्म-मरण है ही नहीं, आत्मा का कुछ बिगड़ता ही नहीं, सब ब्रह्म ही ब्रह्म है, आत्मा ज्ञाता है-कर्ता नहीं। इत्यादि।
दर्शनशास्त्र के विस्तार के लिये विद्या की इतनी जरूरत नहीं जितनी लगन और अभ्यास की है । विचार स्वाधीनता कल्पना कबूतरी को जगह देती है और फिर कोहरे से आवेष्टित जगह में आगे बढ़ने से राह मिलती ही है, वैसे ही दर्शन-पथ में कदम बढ़ता ही है। जिस तरह आविष्कारों के कर्ता न महापण्डित थे-न पण्डित, वैसे ही दर्शनकार भी ज्यादा पढ़े-लिखे न थे । अभ्यास से ज्ञानी और महाज्ञानी बने थे।
दर्शन के सिद्धान्त पंडितों और महापंडितो के हाथों में पड़ कर जटिल से जटिलतर और जटिलतम और गूढ से गूढतर और गूढ़तम बन जाते हैं। जब कि वह ही ज्ञानी के हाथों में पड़ कर सरल से सरलतर और सरलतम बन जाते हैं । ऐसा क्यों होता है ! इसका जवाब सीधा है । पंडित पढ़ता है और पढ़ता है, पढ़े हुए को ही विचारता है, पोथी के पत्रों में ही विचरता है; जब कि अपढ़ चाहे अन चाहे प्रकृति के अन्दर ही पैठता है और रहस्य सागर में डुबकी लगा कर सीपियों से अपनी झोली भर लाता है। ज्ञानी के सामने दर्शन ऐसे आ मौजूद होता है और सत्य ऐसे दर्शन देने लगता है, जैसे हाथ पर रक्खा हुआ आंवला या कलाई पर पहना हुआ कंगन । यह कितना बड़ा अन्तर है ।।