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जैनदर्शन महात्मा भगवानदीनजी
दर्शन पर लेखनी उठाने से पहिले मैं दो-एक बात साफ कर देना चाहता हूं । दर्शन के पहिले किसी तरह का कोई शब्द नहीं जोड़ना चाहिए। जैसे 'जैन आदमी ' कानों को खटकता है, वैसे ही 'जैनदर्शन ' कान को खटकना चाहिये । दर्शन तो दर्शन ही है । उसे जितना बंधनमुक्त रक्खा जाय, उतना ही वह फलेगा - फूलेगा ।
दर्शन पर कोई कुछ लिखे, और उस लेख में आज तक सब दर्शनों का निचोड़ न आये - ऐसा हो ही नहीं सकता । अपढ़ से अपढ़ आदमी के मस्तक में आज तक के सब दर्शन बीज रूप से मौजूद हैं। यह ही हाल तर्कविद्या का है। हर आदमी हर रोज थोड़ा बहुत अपने अन्दर बीज रूप से बैठे दर्शन और तर्क से काम लेता रहता है । पागल तक का अपना दर्शन और अपना तर्क होता है । दर्शन के बिना आदमी का जीवन दूभर हो जायसमाज में रहने के योग्य ही न रह जाय ।
दर्शन की बाल्यावस्था कितनी ही हंसी उड़ाने योग्य क्यों न हो, पर वह है आज तक के दर्शन की जड़ । उससे इन्कार करना या उसकी खिल्ली उड़ाना अपनी खिल्ली उड़ाना है । न जाने क्यों ? आदमी अपनी असलियत छिपाने का अभ्यासी बन गया है। कौन जवान और कौन बूढ़ा ऐसा है जिसके अन्दर उसका बालकपन ज्यों का त्यों मौजूद न हो । पर कोई भी उसे आसानी से मान कर न देगा । जो बूढ़ा दूसरा बालकपन यों ही नहीं नाम पा गया । बड़ी महेनत का फल है। जो बूढ़ापे में बालक बना रहता है वह ही ज्ञानी है, वह ही परम ज्ञानी हो सकता है। नहीं तो बालकपन भुलाकर बूढ़ा सटया जायगा और अन्ड - Es बोलने लगेगा | दार्शनिक को बालक कीसी बात करने दीजिये । अगर आप रोकेंगे तो टोटे में रहेंगे । और समाज को भी बड़ा घाटा होगा ।
घूंघट में जैसे बहू बेटीपने को ससुराल में छिपाये रख सकती है, पर न भूल सकती है, न खो सकती है, न मिटा सकती है । पिहर में जाकर वह फिर ऐसे ही ऊपर उतरने लगता है, जैसे पानी के नीचे दबाकर रक्खी हुई तूम्बी दाब हटने पर ऊपर उतराने लगती है । ठीक इसी तरह बाल्यकालीन दर्शन स्वाधीन होकर ऐसे खिल उठता है और ऐसी उड़ान लेने लगता है, जैसे पिंजड़े के अन्दर का पक्षी पिंजड़े से बाहर होकर ।
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