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२१० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ
दर्शन और नयचक्र मूल तो क्या, किन्तु उसकी सिंहगणिकृत वृत्ति से भी सिद्ध है । आचार्य समन्तभद्र का समय सुनिश्चित नहीं, अत एव उनके उल्लेखों का दोनों में अभाव यहां विशेष साधक नहीं । आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख दोनों में है । वह भी नयचक्र के समय-निर्धारण में उपयोगी है। ___आचार्य दिग्नाग का समय विद्वानों ने ई० ३४५-१२५ के आसपास माना है। अर्थात् विक्रम सं०४०२-४८२ है। आचार्य सिंहगणि जो नयचक्र के टीकाकार हैं अपोहवाद के समर्थक बौद्ध विद्वानों के लिए 'अद्यतनबौद्ध ' विशेषण का प्रयोग करते हैं। उससे सूचित होता है कि दिग्नाग जैसे बौद्ध विद्वान् सिर्फ मल्लवादी के ही नहीं, किन्तु सिंहगणि के भी समकालीन है। यहाँ दिग्नागोत्तरकालीन बौद्ध विद्वान् तो विवक्षित हो ही नहीं सकते; क्यों कि किसी दिग्नागोचरकालीन बौद्ध का मत मूल या टीका में नहीं है । अद्यतनबौद्ध के लिए सिंहगणि ने 'विद्वन् मन्य' ऐसा विशेषण भी दिया है । उससे यह चित भी होता है कि 'आजकाल के ये नये बौद्ध आने को विद्वान् तो समझते हैं, किन्तु हैं नहीं' । समग्र रूप से- विद्वन्मन्यायतन बौद्ध ' शब्द से यह अर्थ भी निकल सकता है कि मल्लवादी और दिग्नाग का समकालीनत्व तो है ही, साथ ही मल्लवादी उन नये बौद्धों को सिंहगणि के अनुसार 'छोकरे' समझते हैं। अर्थात् समकालीन होते हुए भी मल्लवादी वृद्ध हैं और दिग्नाग युवा । इस चर्चा के प्रकाश में परंपराप्राप्त गाथा का विचार करना जरूरी है।
विजयसिंहसूरिपबंध में एक गाथा में लिखा है कि वीर सं. ८८४ में मल्लवादी ने बौद्धों को हराया। अर्थात् विक्रम ४१४ में यह घटना घटी । इससे इतना तो अनुमान हो सकता है कि विक्रम ४१४ में मल्लवादी विद्यमान थे। आचार्य दिग्नाग के समकालीन मल्लवादी थे यह तो हम पहले कह चुके ही हैं । अत एव दिग्नाग के समय विक्रम ४०२-४८२ के साथ जैन परंपरा द्वारा संमत मल्लवादी के समय का कोई विरोध नहीं है और इस दृष्टि से 'मल्लवादी वृद्ध और दिग्नाग युवा' इस कल्पना में भी विरोध की संभावना नहीं । आचार्य सिद्धसेन की उत्तराविधि विक्रम पांचवी शताब्दी मानी जाती है। मल्लवादी ने आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख किया है । अत एव इन दोनों आचार्यों को भी समकालीन माना जाय तब भी विसंगति नहीं। इस प्रकार आचार्य दिग्नाग, सिद्धसेन और मल्लवादी ये तीनों आचार्य समकालीन माने जांय तो उनके अद्यावधि स्थापित समय में कोई विरोध नहीं आता।।
वस्तुतः नय चक्र के उल्लेखों के प्रकाश में इन आचार्यों के समय की पुनर्विचारणा अपेक्षित है; किन्तु अभी इतने से सन्तोष किया जाता है ।
१ नयचकटीका पृ० १९-“विद्वन्मन्याद्यतनबौद्धपरिक्लुप्तम्' १ प्रभावक चरित्र-मुनिश्री कल्याणविजयजी का अनुवाद पृ. ३५, ४२।