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संस्कृति
आचार्य मल्लवादी का नयचक्र ।
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रूप में नाना प्रकार के वेदान्तदर्शनों का आविर्भाव होता है, और सांख्यों के परिणामवाद के विरोधी के रूपमें नैयायिक - वैशेषिक दर्शनों का आविर्भाव होता है । बौद्धदर्शनों का विकास भी परिणामवाद के आधार पर ही हुआ है । अनात्मवादी हो कर भी पुनर्जन्म और कर्मवाद को चिपके रहने के कारण बौद्धों में सन्तति के रूप में परिणामवाद आ ही गया है; किन्तु क्षणिकवाद को उसके तर्कसिद्ध परिणामों पर पहुंचाने के लिए बौद्धदार्शनिकोंने जो चिंतन किया उसीमें से एक और बौद्ध परंपरा का विकास सौत्रान्तिकों में हुआ जो द्रव्य का सर्वथा इनकार करते हैं; किन्तु देश और काल की दृष्टि से अत्यन्त भिन्न ऐसे क्षणों को मानते हैं और दूसरी ओर अद्वैत परंपरा में हुआ जो वेदान्त दर्शनों के ब्रह्माद्वैत की तरह विज्ञानाद्वैत और शून्याद्वैत जैसे वादों का स्वीकार करते हैं । जैनदर्शन भी परिणामवादी परंपरा का विकसित रूप है। जैन दार्शनिकोंने उपर्युक्त घात-प्रत्याघातों का तटस्थ हो कर अवलोकन किया है और अपने अनेकान्तवाद की ही पुष्टि में उसका उपयोग किया है यह तो किसी भी दार्शनिक से छिपा नहीं रह सकता है । किन्तु यहाँ देखना यह है कि उपलब्ध जैनदार्शनिक साहित्य में ऐसा कौनसा ग्रन्थ है जो सर्वप्रथम दार्शनिकों के घातप्रत्याघातों को आत्मसात् करके उसका उपयोग अनेकान्त के स्थापन में ही करता है ।
प्राचीन जैन दार्शनिक साहित्य सर्जन का श्रेय सिद्धसेन और समन्तभद्र को दिया जाता है । इन दोनों में कौन पूर्व और कौन उत्तर है इसका सर्वमान्य निर्णय अभी हुआ नहीं है । फिर भी प्रस्तुत में इन दोनों की कृतिओं के विषय में इतना ही कहना है कि वे दोनों अपने अपने ग्रन्थ में अनेकान्त का स्थापन करते हैं अवश्य, किन्तु दोनों की पद्धति यह है कि परस्पर विरोधी वादों में दोष बताकर अनेकान्त का स्थापन वे दोनों करते हैं । विरोधी वादों के पूर्वपक्षों को या पूर्वपक्षीय वादों की स्थापना को उतना महत्त्व या अवकाश नहीं देते जितना उनके खण्डन को । अनेकान्तवाद के लिए जितना महत्त्व उस २ वाद के दोषों का या असंगति का है उतना महत्त्व बल्कि उससे अधिक महत्त्व उस २ वाद के गुणों का या संगति का भी है और गुणों का दर्शन उस २ वाद की स्थापना के विना नहीं होता है । इस दृष्टि से उक्त दोनों आचार्यों के ग्रन्थ अपूर्ण हैं । अत एव प्राचीन काल के ग्रन्थों में यदि अपने समय तक के सब दार्शनिक मन्तव्यों की स्थापनाओं के संग्रह का श्रेय किसी को है तो वह नयचक्र और उसकी टीका को ही मिल सकता है । अन्य को नहीं । भारतीय समग्र दार्शनिक ग्रन्थों में भी इस सर्व संग्रह और सर्वसमालोचन की दृष्टि से यदि कोई प्राचीनतम ग्रन्थ है तो वह नयचक्र ही है । इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्त्व इस लिए भी बढ़ जाता है कि काल
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