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श्रीमद विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और पूर्वमहोदधि में उठने वाले नयतरंगों के बिन्दुरूप कहा है-पृ. ९ । नयचक्र के इस स्वरूप को समक्ष रखकर उक्त पौराणिक कथा का निर्माण हुआ जान पड़ता है । इस ग्रन्थ का 'पूर्वगत' श्रुत के साथ जो संबंध जोड़ा गया है वह उसके महत्त्व को बढ़ाने के लिए भी हो सकता है और वस्तुस्थिति का द्योतन भी हो सकता है, क्यों कि पूर्वगत श्रुत में नयों का विवरण विशेष रूप से था ही । और प्रस्तुत ग्रन्थ में पुरुष-नियति आदि कारणवाद की जो चर्चा है वह किसी लुप्त परंपरा का द्योतन तो अवश्य करती है। क्यों कि उन कारणों के विषय में ऐसी विस्तृत और व्यवस्थित प्राचीन चर्चा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कारणवादों का संग्रह एक कारिका में किया गया है ; किन्तु उन वादों की युक्तिओं का विस्तृत और व्यवस्थित निरूपण अन्यत्र जो दुर्लभ है वह इस नयचक्र में ही मिलता है । इस दृष्टि से इसमें पूर्व परंपरा का अंश सुरक्षित हो तो कोई आश्चर्य नहीं और इसी लिए इसका महत्त्व भी अत्यधिक है।
आचार्य मल्लवादीने अपनी कृति का संबंध पूर्वगत श्रुत के साथ जो जोडा है वह निराधार भी नहीं लगता । पूर्वगत यह अंश दृष्टिवादान्तर्गत है । ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्व का विषय ज्ञान है । नय यह श्रुतज्ञान का एक अंश माना जाता है। इस दृष्टि से नयचक्र का आधार पूर्वगत श्रुत हो सकता है। किन्तु पूर्वगत के अलावा दृष्टिवाद का ' सूत्र ' भी नयचक्र की रचना में सहायक हुआ होगा । क्यों कि 'सूत्र' के जो बाईस भेद बताए गए हैं उन में ऋजुसूत्र, एवंभूत और समभिरूढ़ का उल्लेख है । और इन ही बाईस सूत्रों को स्वसमय, आजीवकमत और त्रैराशिकमत के साथ भी जोड़ा गया है। यह सूचित करता है कि दृष्टिवाद के सूत्रांश के साथ भी इसका संबंध है। संभव है इस सूत्रांश का विषय ज्ञानप्रवाद में अन्य प्रकार से समाविष्ट कर लिया गया है । इस विषय में निश्चित कुछ भी कहना कठिन है। फिर भी दृष्टिवाद की विषयसूची देख कर इतना ही निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि नयचक्र का जो दृष्टिवाद के साथ संबंध जोडा गया है वह निराधार नहीं। नयचक्र का उच्छेद क्यों ?
नयचक्र पठन-पाठन में नहीं रहा यह तो पूर्वोक्त कथासे सूचित होता है । ऐसा क्यों हुआ ! यह प्रश्न विचारणीय है। नयचक्र में ऐसी कौनसी बात होगी जिसके कारण उसके पढ़ने पर श्रुतदेवता कुपित होती थी ! यह विचारणीय है।
१ श्वेताश्वतर १. २.। २ देखो, नन्दीसूत्रगत दृष्टिवाद का परिचय-सूत्र ५६ ।