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संस्कृति
आचार्य मल्लवादी का मययक्र । इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें दृष्टिवाद के उच्छेद के कारणों की खोज करनी होगी। जिस का यह स्थान नहीं । यहां तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि दृष्टिवाद में अनेक ऐसे विषय थे जो कुछ व्यक्ति के लिए हितकर होने के बजाय अहितकर हो सकते थे। उदाहरण के लिए विद्याएं योग्य व्यक्ति के हाथ में रहने से उनका दुरुपयोग होना संभव नहीं, किन्तु वे ही यदि अस्थिर व्यक्ति के हाथ में हो तो दुरुपयोग संभव है। यह स्थूलभद्र की कथा से सूचित होता ही है । उन्होंने अपनी विद्यासिद्धि का अनावश्यक प्रदर्शन कर दिया और वे अपने संपूर्ण दृष्टिवाद के पाठन के अधिकार से वंचित कर दिए गए। जैनदर्शन को सर्वनयमय कहा गया है। यह मान्यता निराधार नहीं । दृष्टिवाद के मयविवरण में संभव है कि आजीवक आदि मतों की सामग्री का वर्णन हो और उन मतों का नयदृष्टि से समर्थन भी हो । उम मतों के ऐसे मन्तव्य जिनको जैनदर्शन में समाविष्ट करना हो, उनकी युक्तिसिद्धता भी दर्शित की गई हो । यह सब कुशाग्र बुद्धि पुरुष के लिए ज्ञान-सामग्री का कारण हो सकता है और जड़बुद्धि के लिए जैनदर्शन में अनास्थाका भी कारण हो सकता है। यदि नयचक्र उन मतों का संग्राहक हो तो जो आपत्ति दृष्टिवाद के अध्ययन में है वही नयचक्र के भी अध्ययन में उठ सकती है । श्रुतदेवता की आपत्ति-दर्शक कथा का मूल इसमें संभव है । अतएव नये नयचक्र की रचना भी आवश्यक हो जाती है जिसमें कुछ परिमार्जन किया गया हो । आचार्य मल्लवादीने अपने नयचक्र में ऐसा परिमार्जन करने का प्रयत्म किया हो यह संभव है। किन्तु उसकी जो दुर्गति हुई और प्रचार में से बह भी प्रायः लुप्त-सा हो गया उसका कारण खोजा जाय तो पता लगेगा कि परिमार्जन का प्रयत्न होने पर भी जैनदर्शन की सर्वनयमयता का सिद्धान्त उसके भी उच्छेद में कारण हुआ है। नयचक्र की विशेषता
नयचक्र और अन्य ग्रन्थों की तुलना की जाय तो एक बात अत्यन्त स्पष्ट होती है कि जब नयचक्र के बाद के ग्रन्थ नयों के अर्थात् जनेतर दर्शनों के मत का खण्डन ही करते हैं, तब नयचक्र में एक तटस्थ न्यायाधीश की तरह नयों के गुण और दोष दोनों की समीक्षा की गई है।
नयों के विवेचन की प्रक्रिया का भेद भी नयचक्र और अन्य ग्रन्थों में स्पष्ट है'। नयचक्र में वस्तुतः दूसरे जैनेतर मतों को ही नय के रूप में वर्णित किया गया है और उन मतों के उत्तर पक्ष जो कि स्वयं भी एक जैनेतर पक्ष ही होते हैं-उनके द्वारा भी पूर्वपक्ष
१देखो लघीयस्त्रय, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणमयतत्वालोक आदि ।