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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक-प्रथ दर्शन और इस प्रकार द्वितीय अर में विधिविधिनय का प्रथम विकल्प पुरुषवाद जब स्थापित हुआ तब विधिविधिनय का दूसरा विकल्प पुरुषवाद के विरुद्ध खड़ा हुआ और वह है नियति. वाद । नियतिवाद के उत्थान के लिए आवश्यक है कि पुरुषवाद के एकान्त में दोष दिखाया जाय । दोष यह है कि पुरुष ज्ञ और सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र हो तो वह अपना अनिष्ट तो कभी कर ही नहीं सकता है, किन्तु देखा जाता है कि मनुष्य चाहता कुछ और होता है कुछ और । अत एवं सर्व कार्यों का कारण पुरुष नहीं किन्तु नियति है ऐसा मानना चाहिये ।
इसी प्रकार से उत्तरोत्तर क्रमशः खण्डन करके कालवाद, स्वभाववाद और भाववाद का उत्थान विधिविधिनय के विकल्परूप से आचार्यने द्वितीय अर के अन्तर्गत किया है।
भाववाद का तात्पर्य अभेदवाद से-द्रव्यवाद से है। इस वाद का उत्थान भगवती के निम्न वाक्य से माना गया है-किं भयवं ! एके भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अबए भवं, अवहिए भवं, अणेगभूतभवमविए भवं ! सोमिला, एके वि अहं दुवे वि अहं...." इत्यादि भगवती १८. १०. ६४७ ।
(३) द्वितीय अरमें अद्वैतदृष्टि से विभिन्न चर्चा हुई है। अद्वैत को किसीने पुरुष कहा तो किसीने नियति आदि । किन्तु मूल तत्त्व एक ही है उसके नाम में या स्वरूप में विवाद चाहे भले ही हो किन्तु वह तत्त्व अद्वैत है यह सभी वादियों का मन्तव्य है । इस अद्वैततस्व का खास कर पुरुषाद्वैत के निरासद्वारा निराकरण करके सांख्यने पुरुष और प्रकृति के द्वैत को तृतीय अर में स्थापित किया है ।
किन्तु अद्वैतकारणवाद में जो दोष थे वैसे ही दोषों का अवतरण एकरूप प्रकृति यदि नाना कार्यों का संपादन करती है तो उसमें भी क्यों न हो यह प्रश्न सांख्यों के समक्ष भी उपस्थित होता है । और पुरुषाद्वैतवाद की तरह सांख्यों का प्रधान कारणवाद भी खण्डित हो जाता है । इस प्रसंग में सांख्यों के द्वारा संमत सत्कार्यवाद में असरकार्य की आपत्ति दी गई है और सत्त्व-रजस्-तमस् के तथा सुख-दुःख-मोह के ऐक्य की भी आपत्ति दी गई है । इस प्रकार सांख्यमत का निरास करके प्रकृतिवाद के स्थान में ईश्वरवाद स्थापित किया है । प्रकृति के विकार होते हैं यह ठीक है किन्तु उन विकारों को करनेवाला कोई न हो तो विकारों की घटना बन नहीं सकती। अत एव सर्व कार्यों में कारणरूप ईश्वर को मानना आवश्यक है ।
___ इस ईश्वरवाद का समर्थन श्वेताश्वतरोपनिषद् की । एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामे बीजं बहुधा यः करोति' इत्यादि (६. १२) कारिका के द्वारा किया गया है। और “दुविहा पण्णवणा पण्णता-जीवपण्णवणा, अजीवपण्णवणा च ( प्रज्ञापना १. १ ) तथा किमिदं मंते ।