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संस्कृति आचार्य मल्लवादी का नयचक्र ।
१९७. पौराणिक कथा ऐसी है
पंचम पूर्व ज्ञानप्रवाद में से नयचक्र ग्रन्थ का उद्धार पूर्वर्षिओंने किया था उसके बारह आरे थे। उस नयचक्र के पढ़ने पर श्रुतदेवता कुपित होती थी, अत एव आचार्य जिनानन्दने जब कहीं बाहर जा रहे थे, मल्लवादी से कहा कि उस नयचक्र को पढ़ना नहीं। क्योंकि निषेध किया गया, मल्लवादी की जिज्ञासा तीव्र हो गई। और उन्होंने उस पुस्तक को खोल कर पढ़ा तो प्रथम ' विधिनियमभंग' इत्यादि गाथा पढ़ी। उस पर विचार कर ही रहे थे, उतने में श्रुतदेवताने उस पुस्तक को उनसे छीन लिया । आचार्य मल्लवादी दुःखित हुए, किन्तु उपाय था नहीं। अत एव श्रुतदेवता की आराधना के लिए गिरिखण्ड पर्वत की गुफा में गए और तपस्या शुरू की। श्रुतदेवताने उनकी धारणाशक्ति की परीक्षा लेने के लिए पूछा ' मिष्ट क्या है । ' मल्लवादीने उत्तर दिया 'वाल' । पुनः छ मास के बाद श्रुतदेवीने पूछा 'किसके साथ ? ' मुनिने उत्तर दिया ‘गुड़ और घी के साथ ।' आचार्य की इस स्मरणशक्ति से प्रसन्न हो कर श्रुतदेवता ने वर मांगने को कहा । आचार्य ने कहा कि नयचक्र वापस दे दे । तब श्रुतदेवीने उत्तर दिया कि उस ग्रन्थ को प्रकट करने से द्वेषी लोग उपद्रव करते हैं, अत एव वर देती हूँ कि तुम विधिनियमभंग इत्यादि तुम्हें ज्ञात एक गाथा के आधार पर ही उसके संपूर्ण अर्थ का ज्ञान कर सकोगे । ऐसा कह कर देवी चली गई। इसके बाद आचार्यने नयचक्र ग्रन्थ की दश हजार श्लोकप्रमाण रचना की । नयचक्र के उच्छेद की परंपरा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में समान रूप से प्रचलित है। आचार्य मल्लवादी की कथा में जिस प्रकार नयचक्र के उच्छेद को वर्णित किया गया है यह तो हमने निर्दिष्ट कर ही दिया है । श्रीयुत प्रेमीजीने माइल्ल धवल के नयचक्र की एक गाथा अपने लेख में उद्धृत की है उससे पता चलता है कि दिगम्बर परंपरा में भी नयचक्र के उच्छेद की कथा है । जिस प्रकार श्वेताम्बर परंपरा में मल्लवादीने नयचक का उद्धार किया यह मान्यता रूढ़ है उसी प्रकार मुनि देव सेनने भी नयचक का उद्धार किया है ऐसी मान्यता माइल धवल के कथन से फलित होती है । इससे यह कहा जा सकता है कि यह लुप्त नयचक्र श्वेताम्बर दिगम्बर को समानरूप से मान्य होगा। कथा का विश्लेषण-नयचक्र और पूर्व
विद्यमान नयचक्रटीका के आधार पर नय चक्र का जो स्वरूप फलित होता है वह ऐसा है कि प्रारंभ में विधिनियम ' इत्यादि एक गाथासूत्र है। और उसी गाथासूत्र के भाष्य के रूप में नयचक्र का समग्र गद्यांश है । स्वयं आचार्य मल्लवादीने अपनी कृति को
१ “ दुसमीरणेण पोयं पेरियसतं जाहा ति(चि)रं नहूँ । सिरिदेवसेग मुणिणा तय नयचकं पुणो रइयं" देखो जैन साहित्य और इतिहास पृ. १६५।।