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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और का मात्र खण्डन ही नहीं; किन्तु पूर्व पक्ष में जो गुण है उनके स्वीकार की ओर निर्देश भी किया गया है । इस प्रकार उत्तरोत्तर जैनेतर मतों को ही नय मान कर समग्र ग्रन्थ की रचना हुई है । सारांश यह है कि नय यह कोई स्वतः जैनमन्तव्य नहीं, किन्तु जैनेतर मन्तव्य जो लोक में प्रचलित थे उन्हीं को नय मान कर उनका संग्रह विविध नयों के रूप में किया गया है और किस प्रकार जैनदर्शन सर्वनयमय है यह सिद्ध किया गया है। अथवा मिथ्यामतों का समूह हो कर भी जैन मत किस प्रकार सम्यक् है और मिथ्यामतों के समूह का अनेकांतवाद में किस प्रकार सामञ्जस्य होता है यह दिखाना नयचक्र का उद्देश्य है । किन्तु नयचक्र के बाद के ग्रन्थ में नयवाद की प्रक्रिया बदल जाती है। निश्चित जैनमन्तव्य की भित्ति पर ही अनेकान्तवाद के प्रासाद की रचना होती है। जैन संमत वस्तु के स्वरूप के विषय में अपेक्षाभेद से किस प्रकार विरोधी मन्तव्य समन्वित होते हैं यह दिखाना नयविवेचन का उद्देश्य हो जाता है। उसमें प्रासंगिक रूप से नयाभास के रूप में जैनेतर दर्शनों की चर्चा है । दोनों विवेचनों की प्रक्रिया का भेद यही है कि नयचक्र में परमत ही नयों के रूप में रखे गए हैं और अन्य में स्वमत ही नयों के रूप में रखे गए हैं। स्वमत को नय और परमत को नयाभास कहा गया है । जब कि नयचक्र में परमत ही नय और नयाभास कैसे बनते हैं यह दिखाना इष्ट है । प्रक्रिया का यह भेद महत्त्वपूर्ण है। और वह महावीर और नयचक्रोत्तर काल के बीच की एक विशेष विचारधारा की ओर संकेत करता है ।
वस्तु को अनेक दृष्टि से देखना एक बात है अर्थात् एक ही व्यक्ति विभिन्न दृष्टि से एक ही वस्तु को देखता है-यह एक बात है और अनेक व्यक्तिओंने जो अनेक दृष्टि से वस्तुदर्शन किया है उनकी उन सभी दृष्टिओं को स्वीकार करके अपना दर्शन पुष्ट करना यह दूसरी बात है । नयचक्र की विचारधारा इस दूसरी बात का समर्थन करती है । और नयचक्रोत्तरकालीन ग्रन्थ प्रथम बात का समर्थन करते हैं। दूसरी बात में यह खतरा है कि दर्शन दूसरों का है, जैनदर्शन मात्र उनको स्वीकार कर लेता है। जैन दार्शनिक की अपनी सूझ, अपना निजी दर्शन कुछ भी नहीं। वह केवल दूसरों का अनुसरण करता है, स्वयं दर्शन का विधाता नहीं बनता। यह एक दार्शनिक की कमजोरी समझी जायगी कि उसका अपना कोई दर्शन नहीं। किन्तु प्रथम बात में ऐसा नहीं होता । दार्शनिक का अपना दर्शन है। उसकी अपनी दृष्टि है। अत एव उक्त खतरे से बचने के लिए नयचक्रोत्तरकालीन ग्रन्थों ने प्रथम बात को ही प्रश्रय दिया हो तो आश्चर्य नहीं। और जैनदर्शन की सर्वनयमयतासर्वमिथ्यादर्शनसमूहता का सिद्धान्त गौण हो गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उत्तरकाल में नय-विवेचन यह दृष्टि-विवेचन है, परमत-विवेचन नहीं। जब जैन दार्शनिकोंने