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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और कवलित बहुत से ग्रन्थ और मतों का संग्रह और समालोचन इसी ग्रन्थ में प्राप्त है । जो अन्यत्र दुर्लभ है। दर्शन और नय
आचार्य सिद्धसेनने नयों के विषय में स्पष्ट ही कहा है कि प्रत्येक नय अपने विषय की विचारणा में सच्चे होते हैं, किन्तु पर नयों की विचारणा में मोघ-असमर्थ होते हैं। जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद होते हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर दर्शन हैं । नयवाद को अलग अलग लिया जाय तब वे मिथ्या हैं, क्योंकि वे अपने पक्ष को ही ठीक समझते हैं दूसरे पक्ष का तो निरास करते हैं। किन्तु वस्तु का पाक्षिक दर्शन तो परिपूर्ण नहीं हो सकता; अत एव उस पाक्षिक दर्शन को स्वतंत्र रूप से मिथ्या ही समझना चाहिए, किन्तु सापेक्ष हो तब ही सम्यग् समझना चाहिए। अनेकान्तवाद निरपेक्षवादों को सापेक्ष बनाता है यही उसका सम्यक्स्व है । नय पृथक् रह कर दुर्नय होते हैं किन्तु अनेकान्तवाद में स्थान पा कर वे ही सुनय बन जाते हैं; अत एव सर्व मिथ्यावादों का समूह हो कर भी अनेकान्तवाद सम्यक् होता है। आचार्य सिद्धसेनने पृथक् २ वादों को रत्नों की उपमा दी है । पृथक् पृथक् वैदूर्य आदि रत्न कितने ही मूल्यवान् क्यों न हों वे न तो हार की शोभा ही को प्राप्त कर सकते हैं और न हार कहला सकते हैं। उस शोभा को प्राप्त करने के लिए एक सूत्र में उन रत्नों को बंधना होगा। अनेकान्तवाद पृथक् पृथक् वादों को सूत्रबद्ध करता है और उनकी शोभा को बढ़ाता है। उनके पार्थक्य को या पृथक् नामों को मिटा देता है
और जिस प्रकार सब रत्न मिल कर रत्नावली इस नये नाम को प्राप्त करते हैं, वैसे सब नयवाद अपने अपने नामों को खो कर अनेकान्तवाद ऐसे नये नाम को प्राप्त करते हैं । यही उन नयों का सम्यक्त्व है।
इसी बात का समर्थन-आचार्य जिनभद्रने भी किया है । उनका कहना है कि नय जब तक पृथक् पृथक् हैं, तब तक मिथ्याभिनिवेश के कारण विवाद करते हैं। यह मिथ्याभिनिवेश नयों का तब ही दूर होता है जब उन सभी को एक साथ बिठा दिया जाय । जब तक अकेले
१ "णियवयणिजसच्चा सम्वनया परवियालणे मोहा"-सन्मति. १. २८. २ "जावइया वयगवहा तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥"
-सन्मति ३. ४७ ३ सन्मति. १. १३ और. २१ ४ 'जेग दुवे एगंता विभजमाणा अणेगन्तो॥' सन्मति १. १४ । १. २५ । ५ सन्मति १. २२-२५.