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सरस्वतीपुत्र श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि ।
१३७ श्रीमद् देवेन्द्ररिजी आप की मोहक मूर्ति, आप की स्वाध्याय में तत्परता और रुचि पर तथा आप के विनयादि गुणों से बड़े ही आकृष्ट हुये और रुचिपूर्वक आप को समूचे जैन शास्त्रों का अध्ययन कराना स्वीकार किया। अब आप स्थायी रूप से उक्त सूरिजी की निश्रा में ही रहने लगे । सूरिजी की आप अतिशय भक्तिभाव से सेवा करते थे और आज्ञा-पालन में प्रतिपल तत्पर रहते थे। सूरिजी भी आप को बड़े प्रेम और रुचि से जैन शास्त्रों का शिक्षण देते थे । आपने जैनागम और प्रसिद्ध जैन ग्रंथों का अध्ययन तथा जैनतर दर्शन और जैनेतर आवश्यक ग्रंथों का अभ्यास, एवं समूचा अध्ययन इन सूरिजी की तत्त्वावधानता में ही पूर्ण किया । श्रीमद् देवेन्द्रसूरिजी के धीरविजय (धरणेन्द्रसूरि) नाम के युवराज (पट्टधर) शिष्य थे । आप ही श्री इनको पढ़ाते थे और अन्य शिष्यों को भी शिक्षण देते थे । सूरिजी आपको सर्व प्रकार योग्य, बुद्धिमान, विद्वान् समझ कर आप को अपने दफ्तरी का कार्य भी देने लगे। इस शताब्दी में श्रीपूज्यों का बड़ा मान था और उनके दफ्तरियों का भी मान बड़ा चढ़ा-बढ़ा था । दफ्तरी ही श्रीपूज्य के आधीन एवं आज्ञावर्ती यतियों को आज्ञायें, आदेश, संदेश, समाचार प्रचारित करते थे और श्रावकों के नाम घोषणायें एवं विज्ञप्तियां भेजा करते थे । श्रीपूज्य देवेन्द्रसूरिजी का राधनपुर (गुजरात) में जब देहावसान हुआ, उस समय उनके युवराज शिष्य श्री धीरविजयजी छोटी आयु के ही थे और शासन सम्भालने में पूरे योग्य नहीं हो पाये थे । वैसे वे पढ़ने में, लिखने में भी शिथिल और आचार में भी शिथिल ही थे। शासन का भार और श्रीधीरविजयजी की देख-रेख आपको अर्पित करके ही उन्होंने अपना अन्तिम श्वास त्यागा था। श्रीधीरविजयजी अपने गुरु के देहावसान पर धरणेन्द्रसूरि नाम से श्रीपूज्य बने और आपको अपने ' दफ्तरी ' का पद स्थायीरूप से प्रदान किया।
श्रीमद् देवेन्द्रसूरिजी के देहावसान के पश्चात् श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि और आप में स्नेहसंबंध बहुत थोड़े समय तक ही टिक सका। वे भोगी ये त्यागी, वे आलसी ये परिश्रमी,
वे सुप्त ये जाग्रत, वे अल्पज्ञ ये पंडित, वे तंत्र-मंत्रप्रिय ये सिद्धान्तदिशापरिवर्तन प्रिय, वे दम्भी ये सत्यनिष्ठ, वे मनोरञ्जनप्रिय ये शास्त्राभ्यासी, वे
रसिक ये कठोर तपस्वी-इस प्रकार दोनों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। वि. सं. १९२३ में धरणेन्द्रसूरि का चातुर्मास घाणेराव ( मारवाड़-राजस्थान ) में था। श्रीधरणेन्द्रसूरिजी की रसिकता एवं विलासप्रियता सुनकर एक इत्रफरोस इत्र लेकर सूरिजी के पास आया । सूरिजीने उससे बहुत ऊँचे मूल्य का इत्र क्रीत किया। इस प्रसंग पर चरित्रधारी, शुद्धव्रतवंत यति श्रीरत्नविजयजीने धरणेन्द्रसूरिजी को इत्र क्रीत करने से अनुनय-विनय करके रोकना चाहा; परन्तु वह व्यसनी श्रीपूज्य अपनी लोकनिन्दा का भी भय नहीं करता हुआ
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