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श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय गुर्वावली ।
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थे। कोई भावुक सोने आदि के पूठे, ठवणियाँ देता तो उसे संग्रह कर लिया करते थे । उस समय हेमविजयजी कहा करते थे कि यह परिग्रह आगे शिष्यों के लिये दुःखकर होगा; अतः इसे संग्रह करना ठीक नहीं है । खान्तिविजयजी यों कह कर चुप लगाते थे कि यह परिग्रह हम अपने लिये नहीं, पर ज्ञान के लिये संग्रह करते हैं। यों करते २ खान्तिविजयजी का स्वर्गवास हो गया, तब शिष्यों में पूठे और ठवणियों के लिये परस्पर कलह होने लगा । हेमविजयजी बोले कि मैंने तो पहले ही कहा था कि यह परिग्रह आगे दुःखदायी होगा, परन्तु उस समय मेरे कथन पर किसीने ध्यान नहीं दिया । अस्तु । हेमविजयजीने संवत् १८८३ में क्रियोद्धार किया और निर्दोषवृत्ति से रहने लगे । खान्तिविजयजी के लालविजय, दलपतविजय आदि शिष्य हुए। हेमविजयजी व्याकरण, न्याय और कार्मिक ग्रन्थों के अद्वितीय विद्वान् थे । उदयपुर के महाराणाने आपको " कार्मणसरस्वती " का पद दिया था ।
एक समय देवेन्द्रसूरिजी ध्यान में विराजित थे । उन्होंने ध्यान में आगामी वर्ष दुष्काल पड़ने के चिह्न देख कर शिष्यों से कहा कि ओगणसित्तर में ( १८६९ ) दुष्काल पड़ेगा । यह बात पाली - निवासी शान्तिदास सेठने सुन ली और गुरु-वचन पर विश्वास रख कर उसने धान्य संग्रह किया । वह खान्तिविजयादि अनेक साधुओं की आहारादि से बढ़ कर भक्ति करता था; परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरिजी महाराज तो उसके घर का आहारादि नहीं लेकर गांव में जो कुछ प्राप्त होता उससे ही सन्तुष्ट रहते थे । दुष्काल व्यतीत होने के बाद कल्याणविजयजी को आचार्यपद देकर आप संवत् १८०० में जोधपुर ( मारवाड़ - राजस्थान) में स्वर्गवासी हुए ।
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६६ - श्री विजय कल्याणसूरिजी :: -- जन्म संवत् १८२४ बीजापुर में पिता का नाम देसलजी, माता धूलीबाई, संसारी नाम कलजी । आप ज्योतिष और गणित - शास्त्र के श्रेष्ठ विद्वान् थे । आपने अनेक ग्राम-नगरों में विहार कर उपदेश बल पर कितने ही प्रतिमा - विरोधियों का उद्धार किया तथा मेवाड़ और मारवाड़ में अनेक स्थानों पर मन्दिरों की होती हुई आशातनाएँ दूर करवाई । संवत् १८९३ में श्रीप्रमोदविजयजी को आचार्यपद दे कर आप आहोर में स्वर्गवासी हुए ।
६७ - श्री विजय प्रमोदसूरिजी :: - आपका जन्म गाँव डबोक (मेवाड़) में गौड़ ब्राह्मण परमानन्दजी की धर्मपत्नी पार्वती से विक्रम संवत् १८५० चैत्र शु० प्रतिपदा को हुआ था । आपका संसारी नाम प्रमोदचन्द्र था। आपने संवत् १८६३ वैशाख शु० ३ के दिन दीक्षा ली थी। आपको संवत् १८९३ ज्येष्ठ शु० ५ को सूरिपद मिला था । आप शास्त्रलेखनकला के प्रेभी थे और उसमें बड़े दक्ष थे । आपका समय शास्त्र - लेखन में अधिक जाता था । यह बात आपके स्वहस्तोल्लिखित अनेक उपलब्ध ग्रन्थों से ज्ञात होती है । समय दोष से आप