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सरस्वतीपुत्र श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि । तीर्थ और मंदिरों की नवजीवन और नवप्राण फूंके ही; परन्तु साथ ही तीर्थ और मंदिर प्रतिष्ठायें जो धर्म-महालय के आजतक स्तंभ कहे जाते रहे हैं, वे भी आपकी
सेवाओं का लाभ प्राप्त करने से वंचित नहीं रहे। जैन ग्रंथों में कोरंटपुर ( अथवा वर्तमान कोरटा ) नगर का ऐश्वर्य श्रीरत्नप्रभसूरि के समय से प्रसिद्ध हुआ मिलता है। ऐसे प्राचीन नगर के अवशेष रहे लघुग्राम रूप में कोरटा नामक ग्राम आज विद्यमान है। आपश्रीने इस ग्राम में रहे हुये अति प्राचीन मंदिर श्रीमहावीरस्वामी की पुनः प्रतिष्ठा की और उसको प्रकाश में लाया । इस तीर्थ के उपर श्रीमद् विजययतीन्द्र. सूरीश्वरजी महाराज द्वारा प्रकाशित : श्रीकोरटाजी तीर्थ का इतिहास' नामक पुस्तक में विस्तृत रूप में लिखा गया है और प्रस्तुत लेखों में भी एक लेख है। अतः मैं अधिक इस पर लिखना उपयुक्त नहीं समझता । तात्पर्य यह ही है कि आचार्यश्री की दृष्टि अप्रसिद्ध हुये प्राचीन तीर्थों को पुनः प्रकाश में लाने की भी अधिक रही हैं।
जालोर जिसको प्राचीन ग्रंथों में जाबालीपुर कहा गया है कंचनगिरि-स्वर्णगिरि कहे जानेवाले पर्वत की उपत्यका में आज भी निवसित है । कंचनगिरि पर यक्षवसति, कुमारपालविहार, चतुमुर्खादिनाथ आदि जिनालय हैं । आपने इस गिरि पर कठिन तपस्यायें भी की हैं
और कुमारपालविहार, श्रीपार्श्वनाथ मंदिर और चतुमुर्खादिनाथ जिनालय की आपने पुनः प्रतिष्ठा की हैं। ये मंदिर जीर्ण-शीर्ण दशा को प्राप्त हो गये थे, सहस्रों रुपयों से इनका जीर्णोद्धार होता रहा है और आज कंचनगिरि की शृंग पर विनिर्मित सुदृढ़ ऐतिहासिक दुर्ग की शोभा और यात्रा के ये कारण बने हुये हैं।
दियावट्टपट्टी में भांडवपुरस्थ प्रसिद्ध श्रीमहावीर जिनालय की प्राचीनता की ओर भी जैन जनता को आकर्षित करने का श्रेय आप ही को हैं ।
कुक्षी से थोड़े अन्तर पर जो तालनपुर नामक स्थान कभी समृद्ध और सम्पन्न रहा है, वहाँ आपश्री की पुरातत्त्वदृष्टि से आज दो जिनालय तालनपुर की प्राचीनता और वहाँ जैन समाज की रही समृद्धता का परिचय भलिविध करा रहे हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में एतद् संबंधी वर्णन अन्यत्र आ चुका है।
___ आहोर के विशाल एवं उन्नत गौडीपार्श्वनाथ बावन जिनालय की प्रतिष्ठा भी आपने ही की हैं। वैसे छोटे-बड़े अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठायें आपके करकमलों से हुई हैं, जिनको वर्णित करने का यहां उद्देश्य नहीं हैं। क्योंकि वे प्रस्तुत ग्रंथ में ही अन्यत्र वर्णित हो चुकी हैं। _१ पृ० ८४ पर कंचनगिरिस्थ मंदिरों की प्रतिष्ठातिथि माघ शु. १' मुद्रित हुई है। होना माघ शु० ७ चाहिए।
२ पृ० ६३ पर जहा १५० ' जिनालयों की अंजनशलाका होना मुद्रित हुआ हैं, वहां ९५१ समझना चाहिए। -सम्पादक,